ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 62/ मन्त्र 3
ऋषिः - प्रगाथः काण्वः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृत्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
अहि॑तेन चि॒दर्व॑ता जी॒रदा॑नुः सिषासति । प्र॒वाच्य॑मिन्द्र॒ तत्तव॑ वी॒र्या॑णि करिष्य॒तो भ॒द्रा इन्द्र॑स्य रा॒तय॑: ॥
स्वर सहित पद पाठअहि॑तेन । चि॒त् । अर्व॑ता । जी॒रऽदा॑नुः । सि॒षा॒स॒ति॒ । प्र॒ऽवाच्य॑म् । इ॒न्द्र॒ । तत् । तव॑ । वी॒र्या॑णि । क॒रि॒ष्य॒तः । भ॒द्राः । इन्द्र॑स्य । रा॒तयः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अहितेन चिदर्वता जीरदानुः सिषासति । प्रवाच्यमिन्द्र तत्तव वीर्याणि करिष्यतो भद्रा इन्द्रस्य रातय: ॥
स्वर रहित पद पाठअहितेन । चित् । अर्वता । जीरऽदानुः । सिषासति । प्रऽवाच्यम् । इन्द्र । तत् । तव । वीर्याणि । करिष्यतः । भद्राः । इन्द्रस्य । रातयः ॥ ८.६२.३
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 62; मन्त्र » 3
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 40; मन्त्र » 3
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अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 40; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
The lord of immense generosity pervades and rules the world moving on with its own innate law without external imposition. O lord, that divine omnipotence of yours and mighty acts of virile divinity are admirable. Great and good are the gifts of the lord’s charity.
मराठी (1)
भावार्थ
ईश्वराची कीर्ती व दया सदैव गेय (प्रशंसनीय) आहे. कारण त्याच्यामुळे प्रथम मनाची प्रसन्नता असते व कृतज्ञता असते. त्याचे उपकार अनंत आहेत, हे सर्वांनी जाणावे. ज्यामुळे आत्मा शुद्ध होऊन त्याच्याकडे वळावा. ॥३॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
हे इन्द्र ! वीर्य्याणि करिष्यतस्तव । तन्महत्त्वम् । प्रवाच्यं=प्रशंसनीयम् । यतस्त्वम् । अहितेन=अप्रेरितेन= स्वयं प्रवृत्तेन । अर्वता=गच्छता संसारेण सह । जीरदानुः=क्षिप्रप्रदानः । सिषासति=संभक्तुमिच्छति । भद्रा इत्यादि ॥३ ॥
हिन्दी (3)
विषय
N/A
पदार्थ
(इन्द्र) हे इन्द्र ! (वीर्य्याणि+करिष्यतः+तव) संसार के स्थापन, रक्षण और संहरण तत्तद्रूप पराक्रम करते हुए तेरा (तत्+प्रवाच्यम्) वह महत्त्व सदा प्रशंसनीय है, क्योंकि तू (जीरदानुः) भक्तों को शीघ्र दान और उद्धार करनेवाला है और तू (अहितेन+अर्वता) स्वयं प्रवृत्त इस संसार को कर्मानुसार (सिषासति) सकल सुख दे रहा है ॥३ ॥
भावार्थ
ईश्वर की कीर्ति और उसकी दया सदा गेय है, क्योंकि इससे प्रथम मन की प्रसन्नता रहती और कृतज्ञता का प्रकाश होता है और उसके उपकार अनन्त हैं, इसको सब जानें, जिससे आत्मा शुद्ध होकर उसकी ओर लगे ॥३ ॥
विषय
सर्वजीवन प्रद है।
भावार्थ
यह ईश्वर ( जीर-दानुः ) जीवन प्राण का देने वाला है। वह ( अहितेन अवता चित् ) विना बन्धे अश्व से, अर्थात् विना अश्व लगाये ही ( सिषासति ) सब को चलाता है। हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! वीर्यवन् ! (करिष्यतः) जगत् निर्माण करने वाले (तव) तेरे ये सब (वीर्याणि) नाना प्रकार के सामर्थ्य हैं। ( तत् तव प्रवाच्यम् ) यह सब तेरी अति उत्तम रीति से स्तुति करने योग्य है। ( इन्द्रस्य रातयः भद्राः ) उस ऐश्वर्यवान् प्रभु के सब दान बड़े सुखकारी हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रगाथः काण्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ३, ६, १०, ११ निचृत् पंक्ति:। २, ५ विराट् पंक्तिः। ४, १२ पंक्तिः। ७ निचृद् बृहती। ८, ९ बृहती॥ द्वादशर्चं सूक्तम्॥
विषय
'जीरदानु' प्रभु
पदार्थ
[१] वह प्रभु (अहितेन) = न जोते हुए (अर्वता चित्) = घोड़े से ही (सिषासति) = सबके संभजन की कामनावाला होता है। 'घोड़े को जोतकर रथ से प्रभु आते हों' सो बात नहीं। प्रभु तो सदा सर्वत्र प्राप्त हैं ही। (जीरदानुः) = वे प्रभु ही जीवन को देनेवाले हैं। [२] हे (इन्द्र) = सर्वशक्तिमन् प्रभो ! (वीर्याणि करिष्यतः) = शक्तिशाली कर्मों को करनेवाले (तव) = आपका (तत्) = वह कर्म (प्रवाच्यम्) = प्रकर्षेण स्तुति के योग्य है। बिना ही घोड़े जुते रथ के वे आते हैं और हम सबके लिए जीवन को देते । इस (इन्द्रस्य) = परमैश्वर्यशाली प्रभु के (रातयः) = दान (भद्राः) = हमारे लिए कल्याणकर हैं ।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु बिना रथ में जुते घोड़े के ही हमें प्राप्त होते हैं और हमारे लिए जीवन को देनेवाले होते हैं। प्रभु के शक्तिशाली कर्म स्तुति के योग्य हैं। हैं।
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