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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 62 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 62/ मन्त्र 4
    ऋषिः - प्रगाथः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः

    आ या॑हि कृ॒णवा॑म त॒ इन्द्र॒ ब्रह्मा॑णि॒ वर्ध॑ना । येभि॑: शविष्ठ चा॒कनो॑ भ॒द्रमि॒ह श्र॑वस्य॒ते भ॒द्रा इन्द्र॑स्य रा॒तय॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । या॒हि॒ । कृ॒णवा॑म । ते॒ । इन्द्र॑ । ब्रह्मा॑णि । वर्ध॑ना । येभिः॑ । श॒वि॒ष्ठ॒ । चा॒कनः॑ । भ॒द्रम् । इ॒ह । श्र॒व॒स्य॒ते । भ॒द्राः । इन्द्र॑स्य । रा॒तयः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ याहि कृणवाम त इन्द्र ब्रह्माणि वर्धना । येभि: शविष्ठ चाकनो भद्रमिह श्रवस्यते भद्रा इन्द्रस्य रातय: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । याहि । कृणवाम । ते । इन्द्र । ब्रह्माणि । वर्धना । येभिः । शविष्ठ । चाकनः । भद्रम् । इह । श्रवस्यते । भद्राः । इन्द्रस्य । रातयः ॥ ८.६२.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 62; मन्त्र » 4
    अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 40; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Come Indra, here we sing exalting hymns in your honour by which, O lord most powerful, you would love to do immense good for the celebrant. Great and gracious are the charities of Indra.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    त्या महान देवाच्या आज्ञेनुसार वागून त्याच्या कीर्तीचे गान सर्वांनी गावे. कारण तोच सर्वांचे कल्याण करत आहे. ॥४॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    N/A

    पदार्थः

    हे इन्द्र ! हे शविष्ठ=अतिशयबलवन् ! वयम् । वर्धना=यशसोर्वर्धकानि । ते=तव । ब्रह्माणि=स्तोत्राणि । कृणवाम=कुर्मः । अतोऽत्र आयाहि । येभिः स्तोत्रैः प्रसन्नस्त्वम् । इह श्रवस्यते=कीर्तिमिच्छते जनाय । भद्रं+चाकनः=कामयसे करोषि । भद्रा इत्यादि पूर्ववत् ॥४ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    N/A

    पदार्थ

    (इन्द्र) हे इन्द्र ! (शविष्ठ) हे परम बलवान् विश्वेश्वर ! हम उपासक (ते) तेरे महत्त्व को (वर्धना) बढ़ानेवाले (ब्रह्माणि) स्तोत्रों को (कृणवाम) विशेषरूप से गा रहे हैं, अतः तू (आ+याहि) यहाँ आने की कृपा कर । हे इन्द्र ! (येभिः) जिन स्तुतियों से प्रसन्न होकर (इह+श्रवस्यते) इस जगत् में कीर्ति अन्नादिक चाहनेवाले शिष्टजनों का तू (भद्रम्+चाकनः) कल्याण किया करता है ॥४ ॥

    भावार्थ

    उस महान् देव की आज्ञा पर चलते हुए उसी की कीर्ति का गान सब कोई करें, क्योंकि सबको कल्याण वही दे रहा है ॥४ ॥

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    विषय

    प्रभु के दिये अनेक सुखकारी दान।

    भावार्थ

    हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! ( आ याहि ) आ। ( ते ) तेरे ( ब्रह्माणि ) वेदवचनों को हम ( वर्धना ) अपने को बढ़ाने वाला ( कृणवाम ) करें। उनको हम अपनी वृद्धि के लिये उपभोग करें। हे ( शविष्ठ ) अनन्त बलशालिन् ! ( येभिः ) जिनसे तू (इह) इस लोक में ( श्रवस्यते ) ज्ञान के इच्छुक जीवगण के लाभ के लिये ( भद्रम् चाकनः ) अति कल्याण करना चाहता है उन ही वेदों का हम अभ्यास करें। ( इन्द्रस्य रातयः भद्राः ) प्रभु के दिये दान अति सुखकारी होते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रगाथः काण्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ३, ६, १०, ११ निचृत् पंक्ति:। २, ५ विराट् पंक्तिः। ४, १२ पंक्तिः। ७ निचृद् बृहती। ८, ९ बृहती॥ द्वादशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    ब्रह्माणि वर्धना

    पदार्थ

    [१] हे (इन्द्र) = शत्रुविद्रावक प्रभो! (आयाहि) = आप हमें प्राप्त होइए । (ते) = आपके लिए (ब्रह्माणि) = स्तोत्रों को कृणवाम करते हैं। ये स्तोत्र (वर्धनाः) = हमारे वर्धन के लिए होते हैं। इनसे हमें जीवन में प्रेरणा प्राप्त होती है। इनसे एक लक्ष्यदृष्टि उत्पन्न होती है। [२] ये स्तोत्र वे हैं, (येभिः) = जिनसे, हे (शविष्ठ) = अतिशयेन शक्तिसम्पन्न प्रभो! आप (इह) = यहाँ इस जीवन में (श्रवस्यते) = यश व ज्ञान की कामनावाले पुरुष के लिए (भद्रं) = कल्याण को (चाकनः) = चाहते हैं । (इन्द्रस्य) = परमैश्वर्यशाली प्रभु के (रातयः) = दान (श्रदाः) = निश्चय ही कल्याणकर होते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम प्रभु के स्तवन को करें। यह स्तवन हमारी वृद्धि का कारण बनता है। प्रभु इस ज्ञानेच्छु स्तोता के कल्याण को करते हैं।

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