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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 62 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 62/ मन्त्र 12
    ऋषिः - प्रगाथः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः

    स॒त्यमिद्वा उ॒ तं व॒यमिन्द्रं॑ स्तवाम॒ नानृ॑तम् । म॒हाँ असु॑न्वतो व॒धो भूरि॒ ज्योतीं॑षि सुन्व॒तो भ॒द्रा इन्द्र॑स्य रा॒तय॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स॒त्यम् । इर् । वै । ऊँ॒ इति॑ । तम् । व॒यम् । इन्द्र॑म् । स्त॒वा॒म॒ । न । अनृ॑तम् । म॒हान् । असु॑न्वतः । व॒धः । भूरि॑ । ज्योतीं॑षि । सु॒न्व॒तः । भ॒द्राः । इन्द्र॑स्य । रा॒तयः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सत्यमिद्वा उ तं वयमिन्द्रं स्तवाम नानृतम् । महाँ असुन्वतो वधो भूरि ज्योतींषि सुन्वतो भद्रा इन्द्रस्य रातय: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सत्यम् । इर् । वै । ऊँ इति । तम् । वयम् । इन्द्रम् । स्तवाम । न । अनृतम् । महान् । असुन्वतः । वधः । भूरि । ज्योतींषि । सुन्वतः । भद्राः । इन्द्रस्य । रातयः ॥ ८.६२.१२

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 62; मन्त्र » 12
    अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 41; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Let us all worship Indra and adore only truth, never untruth. There is the terrible thunderbolt for the impious uncreators, and profuse lights and showers of bliss for the creators of soma, divine joy and fulfilment for life. Great and gracious are the gifts of Indra.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    पुष्कळ माणसे असत्य व्यवहार करूनही ईश्वराला प्रसन्न करू इच्छितात; परंतु ती त्यांची मोठी चूक आहे. भगवान सत्यस्वरूप आहे. तो कुणासाठीही असत्य व्यवहार करू शकत नाही. तो भेदभाव करत नाही. जे अपराध करूनही ईश्वर आपल्या असत्य व्यवहारात आपल्या बरोबर आहे असे समजून चालतात त्यांना दंड अवश्य मिळतो. ॥१२॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    मानवकर्त्तव्यतामीश्वरन्यायञ्चानया दर्शयति ।

    पदार्थः

    वयं सर्वे मनुष्या मूर्खा विद्वांसो वा । स्त्रियः पुरुषा वा । तमिन्द्रं वै=निश्चयेन । उ=निश्चयेन=पुनः पुनर्निश्चयं विधाय । सत्यमित्=सत्यमेव मत्वा । स्तवाम । न+अनृतम्=अनृतमसत्यं मत्वा न स्तवाम । यतः । असुन्वतः=अशुभकर्मवतः पुरुषस्य महान् वधो जायते । सुन्वतः=शुभकर्मवतश्च । भूरि=भूरीणि बहूनि ज्योतींषि प्राप्यन्ते । यत इन्द्रस्य रातयो दानानि भद्राः सति ॥१२ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    मनुष्य-कर्त्तव्यता और ईश्वरीय न्याय इससे दिखलाते हैं ।

    पदार्थ

    मूर्ख, विद्वान्, स्त्रियाँ, पुरुष हम सब मिलकर या पृथक्-२ (तम्+इन्द्रम्) उस भगवान् को (वै+उ) वारंवार निश्चित कर उसके गुण और स्वभाव को अच्छे प्रकार जान-जानकर (सत्यम्+इत्) सत्य ही मानकर (स्तवाम) स्तुति करें (अनृतम्+न) मिथ्याभूत असत्यकारी न मानकर स्तुति करें, क्योंकि (असुन्वतः) अशुभकारी, अविश्वासी ईश्वर विश्व नास्तिक जन के लिये (महान्+वधः) महान् वध है और (सुन्वतः+भूरि+ज्योतींषि) आस्तिक विश्वासी, श्रद्धालु सत्याश्रयी जन के लिये बहुत-२ प्रकाश, सुख दिए जाते हैं । क्योंकि (इन्द्रस्य+रातयः+भद्राः) इन्द्र के दान कल्याणविधायक हैं ॥१२ ॥

    भावार्थ

    आशय इसका यह है कि बहुत से मनुष्य असत्यव्यवहार के लिये भी ईश्वर को प्रसन्न करना चाहते हैं, किन्तु वह उनकी बड़ी भारी गलती है । भगवान् सत्यस्वरूप है, वह किसी के लिये भी असत्य व्यवहार नहीं करता । वह किसी का पक्षपाती नहीं । जो कोई भूल में पड़कर ईश्वर को अपने पक्ष में समझ असत्य काम करते हैं, वे अवश्य दण्ड पावेंगे ॥१२ ॥

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    विषय

    उपास्य के प्रति भक्तिपूर्ण भाव।

    भावार्थ

    ( वयम् ) हम ( तं ) उस ( इन्द्रं ) ऐश्वर्यवान् प्रभु की ( सत्यम् इत् वा स्तवाम ) सत्य सत्य ही स्तुति करें। (अनृतं न ) असत्य कभी न करें। ( असुन्वतः ) उपासना न करने वाले का ( महान् वधः ) बड़ा भारी नाश होता है। ( सुन्वतः भूरि ज्योतींषि ) उपासक को बहुत तेजोमय ज्ञान प्राप्त होते हैं। इत्येक चत्वारिंशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    ( भद्रा० इत्यादि पूर्ववत् )

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रगाथः काण्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ३, ६, १०, ११ निचृत् पंक्ति:। २, ५ विराट् पंक्तिः। ४, १२ पंक्तिः। ७ निचृद् बृहती। ८, ९ बृहती॥ द्वादशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    महान् असुन्वतः वधः

    पदार्थ

    [१] (वयं) = हम (तं इन्द्रं) = उस परमैश्वर्यशाली प्रभु को (सत्यम् इत् वा उ) = सचमुच ही निश्चय से (स्तवाम) = स्तुति करते हैं, (अनृतं न) = झूठ-मूठ नहीं, अर्थात् किसी स्वार्थ के कारण यों ही स्तुति न करके वस्तुतः हृदय से प्रभु का स्तवन कर रहे हैं। [२] जो भी व्यक्ति अपने अन्दर सोम का रक्षण नहीं करता, उस (असुन्वतः) = सोम का अभिषव न करनेवाले व्यक्ति का अथवा अयज्ञशील पुरुष का (वधः) = वध महान् बड़ा है। (सुन्वतः) = सोम का सम्पादन करनेवाले की (भूरि) = बहुत अधिक (ज्योतींषि) = ज्ञानदीप्तियाँ होती हैं। इस (सुन्वन्) = पुरुष के लिए (इन्द्रस्य) = परमैश्वर्यशाली प्रभु की (रातयः) = देन (भद्राः) = कल्याणकर होती हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम प्रभु का स्तवन हृदय से करते हैं। यज्ञशील सोमरक्षक पुरुष ही ज्योति को प्राप्त करता है। इसके लिए प्रभु की देन सदा कल्याणकर होती हैं। अगले सूक्त का ऋषि भी 'प्रगाथ काण्व' ही है-

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