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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 62 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 62/ मन्त्र 6
    ऋषिः - प्रगाथः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    अव॑ चष्ट॒ ऋची॑षमोऽव॒ताँ इ॑व॒ मानु॑षः । जु॒ष्ट्वी दक्ष॑स्य सो॒मिन॒: सखा॑यं कृणुते॒ युजं॑ भ॒द्रा इन्द्र॑स्य रा॒तय॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अव॑ । च॒ष्टे॒ । ऋची॑षमः । अ॒व॒तान्ऽइ॑व । मानु॑षः । जु॒ष्ट्वी । दक्ष॑स्य । सो॒मिनः॑ । सखा॑यम् । कृ॒णु॒ते॒ । युज॑म् । भ॒द्राः । इन्द्र॑स्य । रा॒तयः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अव चष्ट ऋचीषमोऽवताँ इव मानुषः । जुष्ट्वी दक्षस्य सोमिन: सखायं कृणुते युजं भद्रा इन्द्रस्य रातय: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अव । चष्टे । ऋचीषमः । अवतान्ऽइव । मानुषः । जुष्ट्वी । दक्षस्य । सोमिनः । सखायम् । कृणुते । युजम् । भद्राः । इन्द्रस्य । रातयः ॥ ८.६२.६

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 62; मन्त्र » 6
    अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 40; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    The lord lover of Rks and soma yajna looks below with love at the yajakas like a thirsty man looking anxiously at the water below in the well and, happy with the noble expert soma yaji, he accepts him as friend and companion. Great and good are the gifts of Indra.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जो स्वत: उद्योगी आहे व त्याच्या (प्रभूच्या) मार्गाने जातो त्याला ईश्वर साह्य करतो. ॥६॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    N/A

    पदार्थः

    ऋचीषमः=ऋग्भिः स्तवनीयः । ऋचां=ज्ञानानां स्वामी वा परमेश्वरः । अस्मान् । अवचष्टे=अधः पश्यति । अत्र दृष्टान्तः । अवटान्+इव मानुषः=यथा मनुष्यः । अवटान्=कूपादीन् अधः पश्यति । पुनः । दृष्ट्वा । जुष्ट्वी=प्रसन्नो भूत्वा । दक्षस्य=प्रवृद्धस्य । सोमिनः=शुभकर्मिणः पुरुषस्य । आत्मानम् । सखायम् । युजम्=योग्यञ्च । कृणुते=करोति ॥६ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    N/A

    पदार्थ

    (ऋचीषमः) ऋचाओं और ज्ञानों से स्तवनीय और पूजनीय वह महेश्वर हम प्राणियों के सब कर्मों को (अव+चष्टे) नीचे देखता है (अवटान्+इव+मानुषः) जैसे मनुष्य कूपादिकों को नीचे देखता है । देखकर (जुष्ट्वी) यदि हमारे शुभ होते हैं, तो वह प्रसन्न और यदि अशुभ अमङ्गल और अन्याय को वह देखता है, तो अप्रसन्न होता है । हे मनुष्यों ! जो (दक्षस्य) ईश्वर के मार्ग पर चलते हुए उन्नति कर रहे हैं और (सोमिनः) सदा शुभकर्मों में लगे रहते हैं, उनके आत्मा को (सखायम्) जगत् के साथ मित्र बनाता है और (युजम्+कृणुते) सब कार्य के लिए योग्य बनाता है, अतः वही महान् देव उपास्य है ॥६ ॥

    भावार्थ

    ईश्वर उसी का साहाय्य करता है, जो स्वयं उद्योगी है और उसके पथ पर चलता है ॥६ ॥

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    विषय

    प्रभु के दिये अनेक सुखकारी दान।

    भावार्थ

    जिस प्रकार ( मानुषः ) पियासा मनुष्य ( अवतान् अव चष्टे ) कुओं के नीचे झांकता है, और ( सोमिनः दक्षस्य जुष्ट्वी, युजं सखायं कृणुते ) जल-कूप के रक्षक पुरुष को प्रेम करके उसको अपना साथी, मित्र बना लेता है उसी प्रकार ( ऋचीषमः ) स्तुति के अनुरूप यथार्थ गुणवान् दयाशील प्रभु ( अवतान् अव चष्टे ) रक्षा करने योग्य जनों को दया से देखता है और ( सोमिनः दक्षस्य ) बल वीर्यवान् कर्म करने में समर्थ पुरुष को (जुष्ट्वी) प्रेम करके, प्रभु उसको ही अपना (युजं सखायं कृणुते ) संगी, मित्र बना लेता है। इति चत्वारिंशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    (भद्रा० इत्यादि पूर्ववत् )

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रगाथः काण्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ३, ६, १०, ११ निचृत् पंक्ति:। २, ५ विराट् पंक्तिः। ४, १२ पंक्तिः। ७ निचृद् बृहती। ८, ९ बृहती॥ द्वादशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    'ऋचीषम' प्रभु -पञ्चमःङ्क

    पदार्थ

    [१] (इव) = जैसे (मानुषः) = प्यासा मनुष्य (अवतान्) = कुओं को (अवचष्टे) = देखता है, इसी प्रकार (ऋषीषम:) = [ऋचा समः] स्तुति के अनुरूप, अर्थात् वास्तव में ही दयालु वे प्रभु (अवतान्) = रक्षणीय पुरुषों को (अवचष्टे) = कृपादृष्टि से देखते हैं। [२] (दक्षस्य) = उन्नतिशील (सोमिनः) = सोमरक्षक पुरुष के प्रति (जुष्ट्वी) = प्रीतिवाले होकर उसे (युजं सखायं कृणुते) = सदा साथ रहनेवाले मित्र बनाते हैं। इन (इन्द्रस्य) = परमैश्वर्यशाली प्रभु के (रातयः) = दान (भद्राः) = कल्याणकर हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु अपनी स्तुति के वस्तुतः अनुरूप ही हैं। वे उन्नतिशील सोमरक्षक पुरुष के मित्र होते हैं और उस प्रभु की सब देन कल्याणकर है।

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