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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 76 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 76/ मन्त्र 10
    ऋषिः - कुरुसुतिः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    उ॒त्तिष्ठ॒न्नोज॑सा स॒ह पी॒त्वी शिप्रे॑ अवेपयः । सोम॑मिन्द्र च॒मू सु॒तम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒त्ऽतिष्ठ॑न् । ओज॑सा । स॒ह । पी॒त्वी । शिप्रे॒ इति॑ । अ॒वे॒प॒यः॒ । सोम॑म् । इ॒न्द्र॒ । च॒मू इति॑ । सु॒तम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उत्तिष्ठन्नोजसा सह पीत्वी शिप्रे अवेपयः । सोममिन्द्र चमू सुतम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत्ऽतिष्ठन् । ओजसा । सह । पीत्वी । शिप्रे इति । अवेपयः । सोमम् । इन्द्र । चमू इति । सुतम् ॥ ८.७६.१०

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 76; मन्त्र » 10
    अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 28; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra, lord of the universe, rising with your might and majesty, protect and energise both heaven and earth and promote the soma of life’s vitality created in both heaven and earth by nature and humanity by yajna.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    तोच प्रभू सर्वांना बल व शक्ती देतो व तोच रक्षक आहे दुसरा नाही. ॥१०॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    N/A

    पदार्थः

    हे इन्द्र ! इदं जगत् । ओजसा सह=बलेन सार्धम् । उत्तिष्ठन्=उत्थापयन् । शिप्रे=द्यावापृथिव्यौ । हनुस्थानीयौ । पीत्वी=पालयित्वा । दुष्टान् । अवेपयः=कम्पय । तथा । चमू=द्यावापृथिव्यौ । तयोर्मध्ये सुतं+सोमम् । रक्ष ॥१० ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    N/A

    पदार्थ

    हे इन्द्र ! इस जगत् को (ओजसा+सह) बल से (उत्तिष्ठन्) उठाता हुआ अर्थात् इसको बल से युक्त करता हुआ और (शिप्रे) हनुस्थानीय द्युलोक और पृथिवीलोक को (पीत्वी) उपद्रवों से बचाता हुआ तू दुष्टों को (अवेपयः) डरा । हे प्रभो ! (चमू) इन द्युलोक भूलोकों के मध्य (सुतम्) विराजित (सोमम्) सोम आदि सकल पदार्थों को कृपादृष्टि से देख ॥१० ॥

    भावार्थ

    वही प्रभु सबको बल और शक्ति देता और वही रक्षक है, अन्य नहीं ॥१० ॥

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    विषय

    तृप्त राजा।

    भावार्थ

    हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! तू ( ओजसा सह ) बल पराक्रम के साथ ( उत्तिष्ठन् ) ऊपर उठता हुआ ( चमू-सुतम् ) सेनाओं द्वारा प्राप्त ( सोमम् ) राष्ट्र के ऐश्वर्य को ( पीत्वी ) पालन करके ( शिप्रे अवेपयः ) जल पान करके तृप्त हुए मनुष्य के समान प्रसन्न होकर मुख नासिका वा ठोड़ियों को कंपा, प्रसन्न हो। अथवा ( शिप्रे अवेपयः ) अपनी बलयुक्त सेनाओं को संचालित कर।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कुरुसुतिः काण्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, २, ५, ६, ८—१२ गायत्री। ३, ४, ७ निचृद् गायत्री॥ द्वादशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    शिप्रे अवेपयः

    पदार्थ

    [१] हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष तू (चमू सुतम्) = मस्तिष्क व शरीर के निमित्त उत्पन्न किये गये (सोमम्) = सोम को - वीर्यशक्ति को (पीत्वी) = शरीर में ही सुरक्षित करके (ओजसा सह) = ओजस्विता के साथ उत्तिष्ठन् उन्नत होता हुआ (शिप्रे) = शत्रुओं के जबड़ों को (अवेपयः) = कम्पित कर देता है । [२] शरीर में प्रभु ने सोमशक्ति को स्थापित किया है। यह शरीर को शक्तिशाली बनाती है और मस्तिष्क को ज्ञानदीप्त करती है। इसके रक्षण से ओजस्वी बनकर हम शत्रुओं को परास्त करते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ - शरीर में सुरक्षित सोम हमें वह शक्ति प्राप्त कराता है जो हमें शत्रुओं को पराभूत करने में समर्थ करती है।

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