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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 76 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 76/ मन्त्र 2
    ऋषिः - कुरुसुतिः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    अ॒यमिन्द्रो॑ म॒रुत्स॑खा॒ वि वृ॒त्रस्या॑भिन॒च्छिर॑: । वज्रे॑ण श॒तप॑र्वणा ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒यम् । इन्द्रः॑ । म॒रुत्ऽस॑खा । वि । वृ॒त्रस्य॑ । अ॒भि॒न॒त् । शिरः॑ । वज्रे॑ण । श॒तऽप॑र्वणा ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अयमिन्द्रो मरुत्सखा वि वृत्रस्याभिनच्छिर: । वज्रेण शतपर्वणा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अयम् । इन्द्रः । मरुत्ऽसखा । वि । वृत्रस्य । अभिनत् । शिरः । वज्रेण । शतऽपर्वणा ॥ ८.७६.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 76; मन्त्र » 2
    अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 27; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    This Indra, friend of winds and pranic energies, with hundred-fold discipline of spiritual power like the thunderbolt can destroy the dominating shadows of the evil of darkness and ignorance on way to the soul’s enlightenment.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    वेदात आलंकारिक वर्णन आढळून येते. येथे ईश्वर जीवाचा सखा आहे. त्यात माणसाचे मित्राप्रमाणे आरोप करून वर्णन आहे. जसा या लोकात सखा हितकारी असतो व आपल्या मित्राच्या विघ्ननाशासाठी प्रयत्न करतो त्याप्रमाणे जणू तो जगदीश्वरही करतो. या कारणामुळे वज्र इत्यादी शब्द ईश्वराच्या बाजूने दुसऱ्या अर्थाचा द्योतक आहे. अर्थात त्याचा जो न्याय व नियम आहेत तेच शतपर्व वज्र आहेत. भाव हा आहे की जो निष्कपट बनून त्याला शरण जातो, तो सुखी होतो. ॥२॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    तस्योपकारं दर्शयति ।

    पदार्थः

    अयमिन्द्रो=जगदीशः । यतो मरुत्सखा=प्राणानां सखास्ति । अतस्तेषाम् । वृत्रस्य=आवरकस्य अज्ञानस्य । शिरः । व्यभिनत्=विभिनत्ति । केन । शतपर्वणा वज्रेण ॥२ ॥

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    हिन्दी (2)

    विषय

    उसका उपकार दिखलाते हैं ।

    पदार्थ

    (अयम्+इन्द्रः) यह इन्द्रवाच्य जगदीश जिस कारण (मरुत्सखा) प्राणों का सखा है, अतः (शतपर्वणा) बहुविध पर्वविशिष्ट (वज्रेण) वज्र से (वृत्रस्य) प्राणों के अवरोधक अज्ञान के (शिरः) शिर को (वि+अभिनत्) काट लेता है ॥२ ॥

    भावार्थ

    वेदों में आलङ्कारिक वर्णन बहुत है । यहाँ जीव का सखा ईश्वर है । उसमें मनुष्यसखावत् आरोप करके वर्णन है । जैसे इस लोक में सखा हितकारी होता और अपने मित्र का विघ्ननाश के लिये चेष्टा करता है, तद्वत् मानो वह जगदीश भी करता है । इस हेतु वज्र आदि शब्द ईश्वर-पक्ष में अन्य अर्थ का द्योतक है । अर्थात् उसके जो न्याय और नियम हैं, वे ही शतपर्व वज्र हैं । भाव इसका यह है कि जो निष्कपट हो उसकी शरण में जाता है, वह सुखी होता है ॥२ ॥

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    विषय

    उस की सूर्य से तुलना।

    भावार्थ

    ( मरुत्सखा ) वायु को सहायक लेकर ( इन्द्रः ) सूर्य ( वज्रेण शत-पर्वणा ) सैकड़ों किरणों वाले तेज से ( वृत्रस्य शिरः अभिनत् ) मेघ के ऊपरी भाग को छिन्न भिन्न करता है उसी प्रकार ( अयम् इन्द्रः ) यह शत्रुनाशक वीर सेनापति ( मरुत्-सखा ) वीर पुरुषों का मित्र होकर, (शतपर्वणा वज्रेण ) सैकड़ों टुकड़ियों से बने सैन्य बल से ( वृत्रस्य शिर: ) बढ़ते शत्रु के शिर या मुख्य भाग को ( अभिनत् ) छिन्न भिन्न करे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कुरुसुतिः काण्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, २, ५, ६, ८—१२ गायत्री। ३, ४, ७ निचृद् गायत्री॥ द्वादशर्चं सूक्तम्॥

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