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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 76 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 76/ मन्त्र 4
    ऋषिः - कुरुसुतिः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    अ॒यं ह॒ येन॒ वा इ॒दं स्व॑र्म॒रुत्व॑ता जि॒तम् । इन्द्रे॑ण॒ सोम॑पीतये ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒यम् । ह॒ । येन॑ । वै । इ॒दम् । स्वः॑ । म॒रुत्व॑ता । जि॒तम् । इन्द्रे॑ण । सोम॑ऽपीतये ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अयं ह येन वा इदं स्वर्मरुत्वता जितम् । इन्द्रेण सोमपीतये ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अयम् । ह । येन । वै । इदम् । स्वः । मरुत्वता । जितम् । इन्द्रेण । सोमऽपीतये ॥ ८.७६.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 76; मन्त्र » 4
    अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 27; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    This is Indra, for sure, the soul blest with the energy of prana, by whom is won this light of heaven by the grace of divinity for the enjoyment of divine joy.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    अव्यवस्था होऊ नये यासाठी तो संपूर्ण जगाला आपल्या अधीन ठेवतो. तो महान देव स्तुत्य आहे. ॥४॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तस्य कार्य्यं गीयते ।

    पदार्थः

    येन परमात्मवाचिना वै । इन्द्रेण । अयं+ह=इन्द्रो जीवः । जीवोऽपीन्द्र उच्यते । जितः । इदं+स्वः=सुखञ्च जितम् । कस्मै प्रयोजनाय । सोमपीतये=सोमानां पदार्थानां रक्षायै । कीदृशेन । मरुत्वता ॥४ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    पुनः उसके कार्य्य का गान कहते हैं ।

    पदार्थ

    (वै) निश्चय (येन+मरुत्वता) जिस प्राणसखा (इन्द्रेण) परमात्मा ने (सोमपीतये) निखिल पदार्थों की रक्षा के लिये (अयम्+ह) इन जीवगणों को अपने वश में किया है और (इदम्+स्वः) इन सम्पूर्ण सुखों और जगतों को जीता है, वह मनुष्यों का पूज्य है ॥४ ॥

    भावार्थ

    जिस हेतु सम्पूर्ण चराचर जगत् को वह अपने अधीन रखता है, जिससे अव्यवस्था न होने पावे, अतः वह महान् देव स्तुत्य है ॥४ ॥

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    विषय

    विजयी स्तुत्य सेनापति। पक्षान्तर में परमेश्वर का निर्देश।

    भावार्थ

    ( येन वा इन्द्रेण ) जो शत्रुहन्ता ( मरुत्वता ) मनुष्यों का सहाय लेकर ( सोम-पीतये ) ऐश्वर्य के पालन और उपभोग के लिये उ ( इदं स्वः जितम् ) आकाश को सूर्य के समान, इस समस्त भूलोक का विजय करता है ( अयं ह ) वही निश्चय से स्तुत्य है। ( २ ) सोम जीवों के पालनार्थ प्रभु परमेश्वर इस समस्त जगत को वश करता है, वही स्तुति योग्य है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कुरुसुतिः काण्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, २, ५, ६, ८—१२ गायत्री। ३, ४, ७ निचृद् गायत्री॥ द्वादशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    मरुत्वता स्वः जितम्

    पदार्थ

    [१] (अयम्) = यह जीव ही (ह) = निश्चय से (सोमपीतये) = अपने अन्दर सोम के रक्षण के लिये समर्थ होता है (येन वा) = जिसने निश्चय से (मरुत्वता) = उत्तम प्राणोंवाला होते हुए, अर्थात् प्राणसाधना द्वारा प्राणों की शक्ति को बढ़ाते हुए, (इन्द्रेण) = जितेन्द्रिय पुरुष ने (इदं स्वः) = यह प्रकाश व सुख (जितम्) = जीता है- प्राप्त किया है। [२] वस्तुतः हमारा मौलिक कर्तव्य यही है कि हम सोम का रक्षण करते हुए अपने अन्दर ज्ञान के प्रकाश को बढ़ायें। यह ज्ञान का प्रकाश ही हमारे जीवन को सुखी बनाता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम प्राणसाधना द्वारा सोम [वीर्य] का रक्षण करें। यह सुरक्षित सोम बुद्धि की तीव्रता द्वारा प्रकाश को प्राप्त करायेगा।

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