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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 76 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 76/ मन्त्र 3
    ऋषिः - कुरुसुतिः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    वा॒वृ॒धा॒नो म॒रुत्स॒खेन्द्रो॒ वि वृ॒त्रमै॑रयत् । सृ॒जन्त्स॑मु॒द्रिया॑ अ॒पः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    व॒वृ॒धा॒नः । म॒रुत्ऽस॑खा । इन्द्रः॑ । वि । वृ॒त्रम् । ऐ॒र॒य॒त् । सृ॒जन् । स॒मु॒द्रियाः॑ । अ॒पः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वावृधानो मरुत्सखेन्द्रो वि वृत्रमैरयत् । सृजन्त्समुद्रिया अपः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ववृधानः । मरुत्ऽसखा । इन्द्रः । वि । वृत्रम् । ऐरयत् । सृजन् । समुद्रियाः । अपः ॥ ८.७६.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 76; मन्त्र » 3
    अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 27; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Growing in strength, Indra, the divine soul, friend of winds and cosmic energies of universal prana, scatters the clouds of darkness there by releasing the streams of waters from the sky, and the streams of ananda from the heart.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या ऋचेत विशेष गोष्ट ही दाखविलेली आहे की, जलाच्या परमाणूंना मेघरूप देणारा जगदीशच आहे. आकाशात मेघ पळत आहेत ही कशी आश्चर्यजनक व्यवस्था आहे! हे माणसांनो! त्याची अद्भूत कला पाहा. ॥३॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    तस्यैव कार्य्यं गीयते ।

    पदार्थः

    हे मनुष्याः ! अयं मरुत्सखेन्द्रः । वावृधानः=जगतां हितानि वर्धयन् । समुद्रियाः=आकाशीयाः । अपः=जलानि च । सृजन्=विरचयन् । वृत्रं=तन्निवारकं विघ्नम् । व्यैरयत् । दूरे प्रक्षिपति । अतः स स्तवनीय इत्यर्थः ॥३ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    उसके कार्य्य का गान करते हैं ।

    पदार्थ

    हे मनुष्यों ! यह (मरुत्सखा) प्राणों का सखा (वावृधानः) त्रिभुवनों के हितों को बढ़ाता हुआ और (समुद्रियाः) आकाश में गमन करनेवाले मेघरूप (अपः) जलों को (सृजन्) रचता हुआ (इन्द्रः) परमात्मा (वृत्रम्) उनके विघ्नों को (वि+ऐरयत्) दूर करता है, अतः वही स्तवनीय है ॥३ ॥

    भावार्थ

    इस ऋचा में विशेष बात यह दिखलाई गई है कि जल के परमाणुओं को मेघरूप में विरचनेवाला जगदीश ही है । कैसा आश्चर्य प्रबन्ध है, आकाश में मेघ दौड़ रहे हैं, हे मनुष्यों ! इसकी अद्भुत कला देखो ॥३ ॥

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    विषय

    उस की सूर्य से तुलना।

    भावार्थ

    ( मरुत्सखा इन्द्रः ) वायु की सहाय लेकर इन्द्र, विद्युत् वा सूर्य, जिस प्रकार ( ववृधानः ) अधिक प्रबल होकर ( समुद्रियाः अपः सृजन् ) समुद्र अर्थात् अन्तरिक्षस्थ जलों को उत्पन्न करता हुआ ( वृत्रं ) मेघ को ( वि ऐरयत्) विविध दिशाओं में प्रेरित वा छिन्न भिन्न करता है उसी प्रकार ( मरुत्सखा ) वीर पुरुषों और प्रजास्थ मनुष्यों का मित्र, उनसे सहायवान् होकर राजा अधिक शक्तिशाली होकर ( समुद्रिया अपः ) समुद्र के जलों के समान अपनी सेनाओं को उत्पन्न करता हुआ (वृत्रम् ) बढ़ते शत्रु को छिन्न भिन्न करता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कुरुसुतिः काण्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, २, ५, ६, ८—१२ गायत्री। ३, ४, ७ निचृद् गायत्री॥ द्वादशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    वृत्रं वि ऐरयत्

    पदार्थ

    [१] (मरुत्सखा) = प्राण हैं सखा जिसके, वह (इन्द्रः) = जितेन्द्रिय पुरुष (वावृधाना) = 'शरीर, मन व बुद्धि' के दृष्टिकोण से अत्यन्त वृद्धि को प्राप्त होता हुआ (वृत्रम्) = वासना को (वि ऐरयत्) = विशेषरूप से कम्पित करके विनष्ट करता है। [२] यह (समुद्रियाः) = [स+मुद्] उस आनन्दमय प्रभु की ओर ले- जानेवाले (अपः) = कर्मों को (सृजन्) = उत्पन्न करता हुआ होता है। सदा उत्तम कर्मों को करता हुआ, इन कर्मों के द्वारा प्रभु का अर्चन करता है। 'अप' का अर्थ 'रेतःकण' भी है। उन रेतःकणों को उत्पन्न करता है, जो इसे प्रभु प्राप्ति में सहायक होते हैं। इनके रक्षण से तीव्रबुद्धि होकर वह प्रभु का दर्शन करता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्राणसाधना द्वारा जितेन्द्रिय पुरुष वासना का विनाश करता है और रेतःकणों का रक्षण करता हुआ प्रभु की ओर बढ़ता है।

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