ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 76/ मन्त्र 7
ऋषिः - कुरुसुतिः काण्वः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
म॒रुत्वाँ॑ इन्द्र मीढ्व॒: पिबा॒ सोमं॑ शतक्रतो । अ॒स्मिन्य॒ज्ञे पु॑रुष्टुत ॥
स्वर सहित पद पाठम॒रुत्वा॑न् । इ॒न्द्र॒ । मी॒ढ्वः॒ । पि॒ब॒ । सोम॑म् । श॒त॒क्र॒तो॒ इति॑ शतऽक्रतो । अ॒स्मिन् । य॒ज्ञे । पु॒रु॒ऽस्तु॒त॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
मरुत्वाँ इन्द्र मीढ्व: पिबा सोमं शतक्रतो । अस्मिन्यज्ञे पुरुष्टुत ॥
स्वर रहित पद पाठमरुत्वान् । इन्द्र । मीढ्वः । पिब । सोमम् । शतक्रतो इति शतऽक्रतो । अस्मिन् । यज्ञे । पुरुऽस्तुत ॥ ८.७६.७
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 76; मन्त्र » 7
अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 28; मन्त्र » 1
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अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 28; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Indra, lord of pranic energies and giver of showers of joy over a hundred divine acts of grace, universally sung and celebrated, pray protect and advance this world in this yajna of divine and human creation.
मराठी (1)
भावार्थ
या जगात सृजन, पालन, दया, रक्षण, परस्पर साह्य व संहार इत्यादी जे व्यापार होत आहेत. ते सर्वच ईश्वरीय यज्ञ आहेत. हे माणसांनो! ते तुम्ही पूर्ण करा. ॥७॥
संस्कृत (1)
विषयः
परमात्मा स्तूयते ।
पदार्थः
हे मीढ्वः=आनन्दसेक्तः ! हे शतक्रतो=अनन्तकर्मन् ! हे पुरुस्तुत=बहुजनस्तुत ! हे इन्द्र=ईश ! अस्मिन् यज्ञे=पालनादिकार्य्ये । मरुत्वाँस्त्वम् । सोमं+पिब=संसारं रक्ष । पा रक्षणे यद्वा कृपया अवलोकय ॥७ ॥
हिन्दी (3)
विषय
परमात्मा की स्तुति करते हैं ।
पदार्थ
(मीढ्वः) हे आनन्द की वर्षा देनेवाले (शतक्रतो) अनन्तकर्मन् (पुरुष्टुत) हे बहुस्तुत (इन्द्र) हे महेन्द्र ! (अस्मिन्+यज्ञे) इस सृजन पालन संहरण दयादर्शन आदि क्रिया के निमित्त (सोमं+पिब) इस संसार की रक्षा कर अथवा समस्त पदार्थों को कृपादृष्टि से देख, जिस हेतु तू (मरुत्वान्) प्राणों का सखा है ॥७ ॥
भावार्थ
इस जगत् में सृजन, पालन, दया, रक्षा परस्पर साहाय्य और संहार आदि व्यापार हो रहे हैं, वे सब ही ईश्वरीय यज्ञ हैं । इसको हे मनुष्यों ! तुम भी पूर्ण करो ॥७ ॥
विषय
नाना वीरों के नायक का राष्ट्र-पालन का कर्त्तव्य। अध्यात्म में आत्मा मरुत्वान् का वर्णन ।
भावार्थ
हे ( शत-क्रतो ) अनेक प्रज्ञावाले हे ( पुरु-स्तुत ) बहुतों के स्तुतिपात्र ! हे (मीढ्वः ) जगत् पर सुख की वर्षा करने हारे ! हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! तू ( अस्मिन् यज्ञे ) इस यज्ञ में ( मरुत्वान् ) नाना वीर पुरुषों का स्वामी, सहायक होकर ( सोमं पिब ) इस ऐश्वर्य वा सोम, प्रजा युक्त राष्ट्र का पालन उपभोग कर। ( २ ) प्रभु समस्त जीवों का स्वामी वा वायुओं का स्वामी हो। इस उत्पन्न जगत् में जीवगण का पालन करे। ( ६ ) अध्यात्म में आत्मा प्राण इन्द्रियों का स्वामी होने से मरुत्वान् है। वह शरीर में सोम, वीर्य का पालन और सुख प्राप्त करता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कुरुसुतिः काण्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, २, ५, ६, ८—१२ गायत्री। ३, ४, ७ निचृद् गायत्री॥ द्वादशर्चं सूक्तम्॥
विषय
'मरुत्वान् मीढ्वान्' इन्द्र
पदार्थ
[१] हे (मीढ्वः) = सब सुखों का सेचन करनेवाले (शतक्रतो) = अनन्त शक्ति व प्रज्ञानवाले (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालि प्रभो ! आप (मरुत्वाम्) = प्राणोंवाले हैं । [२] इन प्राणों को स्थापना करते हुए आप (अस्मिन् यज्ञे) = इस जीवन-यज्ञ में (सोमं पिब) = सोमशक्ति का रक्षण करिये। हे (पुरुष्टुत) = अत्यन्त ही स्तवन किये जानेवाले प्रभो ! आप का स्तवन ही हमारा पालन व पूरण करनेवाला है। [पुरु ष्टुतं यस्य] । प्राणों की साधना करते हुए हम शरीर में सोम का रक्षण कर पायेंगे। अपने अन्दर सोम का रक्षण करते हुए हम अपने को 'शतक्रतु' बना पायें। इस सोम ने ही हमारे में शक्ति का सेचन करना है, इसी ने ज्ञानाग्नि को दीप्त करना है।
भावार्थ
भावार्थ:- वे प्रभु हमारे जीवन में सोम का रक्षण करते हुए हमें शक्ति व ज्ञान से परिपूर्ण करते हैं।
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