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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 78 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 78/ मन्त्र 3
    ऋषिः - कुरुसुतिः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    उ॒त न॑: कर्ण॒शोभ॑ना पु॒रूणि॑ धृष्ण॒वा भ॑र । त्वं हि शृ॑ण्वि॒षे व॑सो ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒त । नः॒ । क॒र्ण॒ऽशोभ॑ना । पु॒रूणि॑ । धृ॒ष्णो॒ इति॑ । आ । भ॒र॒ । त्वम् । हि । शृ॒ण्वि॒षे । व॒सो॒ इति॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उत न: कर्णशोभना पुरूणि धृष्णवा भर । त्वं हि शृण्विषे वसो ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत । नः । कर्णऽशोभना । पुरूणि । धृष्णो इति । आ । भर । त्वम् । हि । शृण्विषे । वसो इति ॥ ८.७८.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 78; मन्त्र » 3
    अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 31; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Lord of life, giver of peace and settlement, potent and invincible, bring us manifold gifts of life, sweet to the ear, blissful. We hear you alone are the lord of wealth, honour and beauty.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जो ईश सर्वांना वसवितो व प्राण्यांवर दया दाखवितो तोच प्रार्थनीय आहे. ॥३॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    N/A

    पदार्थः

    उत=अपि च ! हे धृष्णो ! हे दुष्टधर्षक ! हे शिष्टग्राहक देव ! त्वं+हि=त्वमेव खलु । उदारतमः । शृण्विषे=श्रूयसे । हे वसो=हे वासयितः ईश ! अतः नोऽस्मभ्यम् । कर्णशोभना=कर्णशोभनानि=कर्णाभरणानि । पुरूणि=बहूनि । आभर=आहर=देहीत्यर्थः ॥३ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    N/A

    पदार्थ

    (उत) और (धृष्णो) हे दुष्टधर्षक हे शिष्टग्राहक देव ! (त्वम्+हि) तू ही परमोदार (शृण्विषे) सुना जाता है, अतः (वसो) हे सबको वास देनेवाले ईश ! (नः) हम प्राणियों और मनुष्यजातियों को (कर्णशोभना) कानों देहों और मनों को शोभा पहुँचानेवाले (पुरूणि) बहुत से आभरण और साधन (आभर) दो ॥३ ॥

    भावार्थ

    जो ईश सबको वास देता है और प्राणियों पर दया रखता है, वही प्रार्थनीय है ॥३ ॥

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    विषय

    राजा, विद्वान् तत्वदर्शी का वर्णन।

    भावार्थ

    ( उत ) और हे ( घृष्णो ) शत्रुपराजयकारिन् । तू ( नः ) हमें ( पुरूणि ) बहुत से ( कर्ण शोभना ) कानों को सजाने के साधन, उत्तम वचन और कर्णकुण्डल आदि अलंकरण ( नः आ भर ) हमें प्राप्त करा और हमारे दिये तू धारण कर। हे ( वसो ) उत्तम विद्वन् ! ब्रह्मचारिन् वसाने हारे ! ( त्वं हि शृण्विषे ) तू ही हमारे वचन सुन और अपने हमें सुना।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कुरुसुतिः काण्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ३ निचृद् गायत्री। २, ६—९ विराड् गायत्री। ४, ५ गायत्री। १० बृहती॥ दशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    कर्णशोभना

    पदार्थ

    [१] हे (धृष्णो) = शत्रुओं का धर्षण करनेवाले प्रभो! आप (नः) = हमारे लिये (उत) = निश्चय से (पुरूणि) = खूब पालन व पूरण करनेवाले (कर्णशोभना) = कानों के लिये शोभा के कारणभूत ज्ञानों को (आभर) = प्राप्त कराइये। ये ज्ञान के वचन ही हमारे कानों के लिये शोभा के वर्धक हों। [२] हे (वसो) = ज्ञान को देकर हमारे निवास को उत्तम बनानेवाले प्रभो ! (त्वम्) = आप (हि) = ही (शृण्विषे) = हमारे से सुने जाते हैं। हमारे लिये ज्ञानों को देनेवाले आप ही हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम ज्ञान के वचनों को सुनें। ये ज्ञानवाणियाँ ही हमारे कानों के आभरण हों।

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