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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 78 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 78/ मन्त्र 5
    ऋषिः - कुरुसुतिः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    नकी॒मिन्द्रो॒ निक॑र्तवे॒ न श॒क्रः परि॑शक्तवे । विश्वं॑ शृणोति॒ पश्य॑ति ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    नकी॑म् । इन्द्रः॑ । निऽक॑र्तवे । न । श॒क्रः । परि॑ऽशक्तवे । विश्व॑म् । शृ॒णो॒ति॒ । पश्य॑ति ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नकीमिन्द्रो निकर्तवे न शक्रः परिशक्तवे । विश्वं शृणोति पश्यति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    नकीम् । इन्द्रः । निऽकर्तवे । न । शक्रः । परिऽशक्तवे । विश्वम् । शृणोति । पश्यति ॥ ८.७८.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 78; मन्त्र » 5
    अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 31; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    No one can equal Indra in action, no one in power, he is the powerful, he hears and sees all that is and all that happens in the world.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    तो (परमेश्वर) सर्वदृष्टा व सर्वश्रोता आहे. त्यामुळे त्याला कुणी परास्त करू शकत नाही. हे माणसांनो! त्याचीच उपासना करा. ॥५॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    N/A

    पदार्थः

    इन्द्रः=सर्वद्रष्टा परमेश्वरः । निकर्तवे=निकर्तुं=तिरस्कर्तुम् । नकीं=नैव । शक्यः । यतः । स शक्रः=सर्वशक्तिमानस्ति अतः स परिशक्तवे=परिभवितुं न शक्यः । स विश्वं सर्वं शृणोति । पश्यति च ॥५ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    N/A

    पदार्थ

    (इन्द्रः) सर्वद्रष्टा परमेश्वर का (निकर्तवे) तिरस्कार (नैव) कोई भी नहीं कर सकता । जिस हेतु वह (शक्रः) सर्वशक्तिमान् है, अतः (न+परिशक्तवे) उसका कोई भी पराभव नहीं कर सकता । वह (विश्वम्+शृणोति) सब सुनता (पश्यति) और देखता है ॥५ ॥

    भावार्थ

    जिस कारण वह सर्वद्रष्टा सर्वश्रोता है, अतः उसको कोई भी परास्त नहीं करता । हे मनुष्यों ! उसी की उपासना करो ॥५ ॥

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    विषय

    इन्द्र-पद।

    भावार्थ

    ( इन्द्रः ) यह ऐश्वर्यवान् वा यथार्थदर्शी प्रभु, स्वामी ( नकीम् निकर्त्तवे ) कभी भी अनादर और हिंसा करने योग्य नहीं। ( शुक्रः ) यह शक्तिमान् (न परि-शक्तवे ) बल द्वारा पराजय करने के भी योग्य नहीं। वह ( विश्वं शृणोति ) सब कुछ सुनता, (विश्वं पश्यति) सब कुछ देखता है। इत्येकत्रिंशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    साक्षी चेता केवलो निर्गुणश्च॥ सोऽस्याध्यक्षः परमे व्योमन्। उप०॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कुरुसुतिः काण्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ३ निचृद् गायत्री। २, ६—९ विराड् गायत्री। ४, ५ गायत्री। १० बृहती॥ दशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    न निकर्तवे, न परिशक्तवे

    पदार्थ

    [१] (इन्द्रः) = वे परमैश्वर्यशाली प्रभु (निकर्तवे नकीम्) = निरादर व हिंसा के लिये नहीं होते- कोई भी प्रभु का निरादर व हिंसन नहीं कर सकता। (शक्रः) = वे सर्वशक्तिमान् प्रभु (परिशक्तवे न) = बल द्वारा पराजित करने योग्य नहीं होते। वे प्रभु सर्वाधिक ऐश्वर्यवाले व सर्वशक्तिमान् हैं। [२] वे प्रभु ही (विश्वं शृणोति) = सब को सुनते हैं सब की प्रार्थना को सुननेवाले वे प्रभु ही हैं और सब को वे ही (पश्यति) = देखते हैं [Look after ]- सब का वे ही पालन व पोषण करते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ:- कोई भी प्रभु का हिंसन व निरादर नहीं कर सकता। प्रभु ही सब की प्रार्थना को सुनते हैं व सभी का पालन करते हैं।

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