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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 78 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 78/ मन्त्र 7
    ऋषिः - कुरुसुतिः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - विराड्गायत्री स्वरः - षड्जः

    क्रत्व॒ इत्पू॒र्णमु॒दरं॑ तु॒रस्या॑स्ति विध॒तः । वृ॒त्र॒घ्नः सो॑म॒पाव्न॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    क्रत्वः॑ । इत् । पू॒र्णम् । उ॒दर॑म् । तु॒रस्य॑ । अ॒स्ति॒ । वि॒ध॒तः । वृ॒त्र॒ऽघ्नः । सो॒म॒ऽपाव्नः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    क्रत्व इत्पूर्णमुदरं तुरस्यास्ति विधतः । वृत्रघ्नः सोमपाव्न: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    क्रत्वः । इत् । पूर्णम् । उदरम् । तुरस्य । अस्ति । विधतः । वृत्रऽघ्नः । सोमऽपाव्नः ॥ ८.७८.७

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 78; मन्त्र » 7
    अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 32; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    He is the doer, perfect and ever self-fulfilled is the passion and desire of the lord who is all conqueror, all ordainer, destroyer of evil and darkness, and loves the peace and joy of life’s beauty and ecstasy as soma.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमेश्वर माणसाच्या सुकर्मानेच प्रसन्न होतो. त्यासाठी त्याच्या इच्छेनुसार माणसाने सन्मार्गाने चालावे ॥७॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    N/A

    पदार्थः

    तुरस्य=विजेतुः । विधतः=विधानकर्तुः । वृत्रघ्नः= निखिलविघ्नविहन्तुः । सोमपाव्नः=सकलपदार्थपातुः तस्य । उदरम्=मनः । क्रत्वः+इत्=कर्मणैव पूर्णमस्ति ॥७ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    N/A

    पदार्थ

    (तुरस्य) सर्वविजेता (विधतः) विधानकर्ता (वृत्रघ्नः) निखिलविघ्नविहन्ता (सोमपाव्नः) समस्त पदार्थपाता उस परमात्मा का (उदरम्) उदर अर्थात् मन (क्रत्वः+इत्) कर्म से ही (पूर्णम्+अस्ति) पूर्ण है ॥७ ॥

    भावार्थ

    परमात्मा मनुष्य के सुकर्म से ही प्रसन्न होता है, इसलिये उसकी इच्छा के अनुसार मनुष्य सन्मार्ग पर चले ॥७ ॥

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    विषय

    सर्वैश्वर्य स्वामी प्रभु।

    भावार्थ

    उस ( तुरस्य ) शीघ्रकारी, शत्रुहिंसक ( विधतः ) प्रजाओं को विविध प्रकार से पालन पोषण करने वाले, जगत् के कर्त्ता, ( वृत्रघ्नः ) विघ्नों, दुष्टों और मेघों को नाश करने वाले और ( सोम-पाव्नः ) जगत्, ऐश्वर्य, पुत्र शिष्यादि के पालक का ( उदरम् ) पेट, हृदय ( क्रत्वः इत् ) ज्ञान और कर्म से ही ( पूर्णम् ) पूर्ण रहता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कुरुसुतिः काण्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ३ निचृद् गायत्री। २, ६—९ विराड् गायत्री। ४, ५ गायत्री। १० बृहती॥ दशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    क्रतुसे पूर्ण उदर

    पदार्थ

    [१] (तुरस्य) = कर्मों को (त्वरा) = से करते हुए (विधतः) = उपासक का कर्म के द्वारा उपासना करते हुए पुरुष का (उदरम्) = उदर आभ्यन्तर प्रदेश (इत्) = निश्चय से (क्रत्वः) = शक्ति व प्रज्ञान से (पूर्णम्) = परिपूर्ण (अस्ति) = होता है। इसका प्राणमयकोश शक्ति से परिपूर्ण होता है, तो इसका विज्ञानमयकोश ज्ञान से परिपूर्ण हुआ करता है। [२] (वृत्रघ्नः) = ज्ञान की आवरणभूत वासना का विनाश करनेवाले और इस (सोमपाव्नः) = सोम का [वीर्य का] रक्षण करनेवाले पुरुष का उदर क्रतु से पूर्ण हुआ करता है । सोम ने ही तो शरीर में शक्ति व मस्तिष्क में ज्ञान की स्थापना करनी है।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम त्वरा से कर्त्तव्य कर्मों को करते हुए प्रभु का पूजन करें। वासना को विनष्ट करते हुए सोम का रक्षण करनेवाले बनें। इस प्रकार हम शक्ति व ज्ञान से परिपूर्ण हृदयवाले बनेंगे।

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