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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 78 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 78/ मन्त्र 6
    ऋषिः - कुरुसुतिः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - विराड्गायत्री स्वरः - षड्जः

    स म॒न्युं मर्त्या॑ना॒मद॑ब्धो॒ नि चि॑कीषते । पु॒रा नि॒दश्चि॑कीषते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सः । म॒न्युम् । मर्त्या॑नाम् । अद॑ब्धः । नि । चि॒की॒ष॒ते॒ । पु॒रा । नि॒दः । चि॒की॒ष॒ते॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स मन्युं मर्त्यानामदब्धो नि चिकीषते । पुरा निदश्चिकीषते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सः । मन्युम् । मर्त्यानाम् । अदब्धः । नि । चिकीषते । पुरा । निदः । चिकीषते ॥ ८.७८.६

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 78; मन्त्र » 6
    अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 32; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Undaunted and invincible, he watches the pride and passion of mortals, watches and humbles them before they can malign him.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    ईश्वर सर्वज्ञ व सर्वान्तर्यामी आहे. त्यासाठी सर्वाच्या अंत:करणातील गोष्टी जाणून शुभाशुभ फळ देतो. त्यासाठी हृदयात ही कुणाचे अनिष्ट चिंतन करू नये. ॥६॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    N/A

    पदार्थः

    अदब्धः=अहिंसितः=अविनश्वरः । स इन्द्रः । मर्त्यानाम्=मनुष्याणाम् । मन्युं=क्रोधमपराधं च नि+चिकीषते=नितरां तिरस्करोति । निदः=निन्दायाः । पुरा=पूर्वमेव । चिकीषते । यः कश्चित् तं निन्दितुमिच्छति तं प्रागेव दण्डयति ॥६ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    N/A

    पदार्थ

    (अदब्धः) अहिंसित अविनश्वर सदा एकरस (सः) वह परमात्मा (मर्त्यानाम्+मन्युम्) मनुष्यों के क्रोध और अपराध को (नि+चिकीषते) दबा देता है और (निदः+पुरा) निन्दा के पूर्व ही (चिकीषते) निन्दक को जान लेता है अर्थात् जो कोई उसकी निन्दा करना चाहता है, उसके पूर्व ही उसको वह दण्ड दे देता है ॥६ ॥

    भावार्थ

    जिस हेतु ईश्वर सर्वज्ञ और सर्वान्तर्य्यामी है, अतः सबके हृदय की बात जान शुभाशुभ फल देता है । इस हेतु हृदय में भी किसी का अनिष्टचिन्तन न करे ॥६ ॥

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    विषय

    उसका अविनाशी पद।

    भावार्थ

    ( सः अदग्धः ) वह अविनाशी, किसी से न मारा जाने वाला, अदण्डनीय ( मर्त्यानां ) मनुष्यों के ( मन्युं ) ब्रोध को ( नि चिकीषते ) तुच्छ करके जानता है और ( निदः ) निन्दकों को ( पुरा ) पहले ही ( नि चिकीषते ) नीचा दिखा देता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कुरुसुतिः काण्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ३ निचृद् गायत्री। २, ६—९ विराड् गायत्री। ४, ५ गायत्री। १० बृहती॥ दशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    क्रोध का पराभव

    पदार्थ

    [१] (सः अदब्धः) = वे किसी से हिंसित न होनेवाले प्रभु (मर्त्यानाम्) = मनुष्यों के (मन्युम्) = क्रोध को (निचिकीषते) = [निकरोति] निरादृत करते हैं- पराभूत करते हैं। प्रभु का स्मरण करने पर यह उपासक क्रोधशून्यवृत्तिवाला बनता है। [२] (निदः पुरा) = निन्दनीय स्थिति में पहुँचने से पूर्व ही प्रभु इनके क्रोध को (चिकीषते) = निकृत करते हैं। क्रोध के कारण मनुष्य उपहास्य व निन्द्य स्थिति में पहुँच जाता है। प्रभु अपने उपासक को इस स्थिति में कभी नहीं पहुँचने देते ।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु अपने उपासक को क्रोध पर विजयी बनाते हैं। उपासना क्रोध को दूर करती है।

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