ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 78/ मन्त्र 4
नकीं॑ वृधी॒क इ॑न्द्र ते॒ न सु॒षा न सु॒दा उ॒त । नान्यस्त्वच्छू॑र वा॒घत॑: ॥
स्वर सहित पद पाठनकी॑म् । वृ॒धी॒कः । इ॒न्द्र॒ । ते॒ । न । सु॒ऽसाः । न । सु॒ऽदाः । उ॒त । न । अ॒न्यः । त्वत् । शू॒र॒ । वा॒घतः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
नकीं वृधीक इन्द्र ते न सुषा न सुदा उत । नान्यस्त्वच्छूर वाघत: ॥
स्वर रहित पद पाठनकीम् । वृधीकः । इन्द्र । ते । न । सुऽसाः । न । सुऽदाः । उत । न । अन्यः । त्वत् । शूर । वाघतः ॥ ८.७८.४
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 78; मन्त्र » 4
अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 31; मन्त्र » 4
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अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 31; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
No one augments the beauty and glory of life other than you, none else the giver, none else is the sharer, none else, O brave and generous lord, a better guide and greater leader of the wise.
मराठी (1)
भावार्थ
ईश्वरापेक्षा मोठा कोणीही (जीव) नाही. त्यासाठी तोच उपास्यदेव आहे. ॥४॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
हे इन्द्र ! त्वदन्यः कश्चित् । वृधीकः=वर्धयिता । नकीम्=नैवास्ति । ते=त्वत्तोऽन्यः । सुसाः=सुष्ठु संभक्ता नैवास्ति । उत=अपि च । सुदाः=सुष्ठु दाता नैव । हे शूर ! त्वत्=त्वत्तः । अन्यः । वाघतः=धार्मिकस्य पुरुषस्य नेता नास्ति । अतो ममापि प्रार्थनां शृणु ॥४ ॥
हिन्दी (3)
विषय
N/A
पदार्थ
(इन्द्र) हे सर्वद्रष्टा सर्वरक्षक महेश ! त्वद्भिन्न कोई भी (वृधीकः) अभ्युदयवर्धक (नकीम्) नहीं है, (ते) तुझसे बढ़कर कोई भी (सुसाः+न) नाना पदार्थों का विभाग करनेवाला नहीं (उत) और (न+सुदाः) न कोई सुदाता है । (शूर) हे शूर ! (त्वत्+अन्यः) तुझसे बढ़कर (वाघतः) धार्मिक पुरुषों का नेता नहीं ॥४ ॥
भावार्थ
ईश्वर से बढ़कर कोई जीव नहीं, अतः वही उपास्यदेव है ॥४ ॥
विषय
इन्द्र-पद।
भावार्थ
हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! हे सत्यतत्त्वदर्शिन् ! राजन् ! विद्वन् ! ( ते अन्यः ) तुझ से दूसरा ( न कीं वृधीकः ) कोई और न बढ़ाने हारा, न ते सुषाः ) न तुझ से दूसरा कोई उत्तम न्यायपूर्वक विभागकारी, ( उत ) और ( न सुदाः ) न उत्तम दाता है ( उत ) और हे ( शूर ) वीर ! हे अज्ञान, दुर्गुणादि के नाशक ! ( त्वत् अन्यः वाघतः न ) तुझ से दूसरा कोई और विद्वान् ज्ञानधारक वाग्मी भी नहीं है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कुरुसुतिः काण्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ३ निचृद् गायत्री। २, ६—९ विराड् गायत्री। ४, ५ गायत्री। १० बृहती॥ दशर्चं सूक्तम्॥
विषय
वृधीक, सुषा व सुदा
पदार्थ
[१] हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (वाधतः) = ऋत्विओं- यज्ञशील पुरुषों का (त्वत् अन्यः) = आपसे भिन्न कोई और (वृधीकः) = बढ़ानेवाला (नकीम्) = नहीं है। आप ही सब यज्ञशील पुरुषों के बढ़ानेवाले हैं । [२] हे (शूर) = शत्रुओं को शीर्ण करनेवाले प्रभो ! (न ते सुषा:) = आपका कोई भी (सुष्ठु) = सम्भजन करनेवाला नहीं है। संग्राम आदि में आप ही इन ऋत्विजों के संभक्ता [=साथ देनेवाले] होते हैं। (उत) = और (न सुदा:) = आपके समान कोई और उत्तम दाता नहीं । न वस्तुतः आपसे भिन्न कोई नहीं है। आपसे पृथक् स्थान में किसी की सत्ता नहीं है। प्रकृति व जीव सब आपके आधार से ही हैं।
भावार्थ
भावार्थ- हम यज्ञशील बनें। प्रभु ही यज्ञशील पुरुषों के बढ़ानेवाले, संग्राम में साथ देनेवाले व सब उत्तम साधनों व पदार्थों को देनेवाले हैं।
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