ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 83/ मन्त्र 4
ऋषिः - कुसीदी काण्वः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - पादनिचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
वा॒मं नो॑ अस्त्वर्यमन्वा॒मं व॑रुण॒ शंस्य॑म् । वा॒मं ह्या॑वृणी॒महे॑ ॥
स्वर सहित पद पाठवा॒मम् । नः॒ । अ॒स्तु॒ । अ॒र्य॒म॒न् । वा॒मम् । व॒रु॒ण॒ । शंस्य॑म् । वा॒मम् । हि । आ॒ऽवृ॒णी॒महे॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
वामं नो अस्त्वर्यमन्वामं वरुण शंस्यम् । वामं ह्यावृणीमहे ॥
स्वर रहित पद पाठवामम् । नः । अस्तु । अर्यमन् । वामम् । वरुण । शंस्यम् । वामम् । हि । आऽवृणीमहे ॥ ८.८३.४
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 83; मन्त्र » 4
अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 3; मन्त्र » 4
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अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 3; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
O divine leader of advancement, Aryaman, let our action for progress be noble and successful. O Varuna, divine power of judgement and value, may our honour and reputation be good and noble. We opt for only what is good, noble and gracefully successful.
मराठी (1)
भावार्थ
सर्व दिव्य गुणी विद्वानांकडून श्रेष्ठ, प्रशंसनीय, सेवन करण्यायोग्य ऐश्वर्याच्या प्रबोधाची प्रार्थना केली पाहिजे. ॥४॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
हे (अर्यमन्) न्यायकारी! (वामम्) सेवन योग्य ऐश्वर्य (नः अस्तु) हमारा हो; हे (वरुण) श्रेष्ठ! (शंस्यम्) प्रशंसनीय ऐश्वर्य (नः) हमारा हो; कारण कि हम (हि) निश्चय ही (वामम्) सेवन योग्य और प्रशंसनीय ऐश्वर्य की ही आप से (आ वृणीमहे) याचना करते हैं॥४॥
भावार्थ
सभी दिव्य गुणयुक्त विद्वानों से श्रेष्ठ, प्रशंसनीय, अतएव सेवन योग्य ऐश्वर्य के प्रबोध की प्रार्थना करो॥४॥
विषय
विद्वान् तेजस्वी, व्यवहारकुशल विद्वान् जनों के कर्त्तव्य।
भावार्थ
हे ( अर्यमन् ) दुष्टों के नियन्तः न्यायकारिन् ! हे ( वरुण ) सबसे वरणीय ! ( नः वामं अस्तु ) हमारा उत्तम धन हो। और ( वामं शंस्यं अस्तु ) हमारा धन प्रशंसनीय हो। और हम ( वामं हि आवृणीमहे ) उत्तम, सेवन करने योग्य धन वा सुख की ही याचना करते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कुसीदी काण्व ऋषिः॥ विश्वे देवताः॥ छन्दः—१, २, ५, ६, ९ गायत्री। ३ निचृद गायत्री। ४ पादनिचृद गायत्री। ७ आर्ची स्वराड गायत्री। ८ विराड गायत्री।
विषय
वामम् [आवृणीमहे]
पदार्थ
[१] हे (अर्यमन्) [अरीन् यच्छति] = संयम के देव! (नः) = हमारे लिये (वामं अस्तु) = सुन्दर [वननी - संभजनीय] धन प्राप्त हो। हे (वरुण) = द्वेष व पाप के निवारण के दिव्य भाव ! हमारे लिये (वामम्) = वननीय [सुन्दर] तथा (शंस्यम्) = प्रशंसनीय धन प्राप्त हो। हम, हे देवो ! (वामम्) = संभजनीय सुन्दर धन का (हि) = ही (आवृणीमहे) = सर्वथा वरण करते हैं। हम यही चाहते हैं कि हमें सुन्दर प्रशस्त धन प्राप्त हों।
भावार्थ
भावार्थ- हमें प्रशस्त धन प्राप्त हो ।
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