ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 94/ मन्त्र 12
ऋषिः - बिन्दुः पूतदक्षो वा
देवता - मरूतः
छन्दः - निचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
त्यं नु मारु॑तं ग॒णं गि॑रि॒ष्ठां वृष॑णं हुवे । अ॒स्य सोम॑स्य पी॒तये॑ ॥
स्वर सहित पद पाठत्यम् । नु । मारु॑तम् । ग॒णम् । गि॒रि॒ऽस्थाम् । वृष॑णम् । हु॒वे॒ । अ॒स्य । सोम॑स्य । पी॒तये॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्यं नु मारुतं गणं गिरिष्ठां वृषणं हुवे । अस्य सोमस्य पीतये ॥
स्वर रहित पद पाठत्यम् । नु । मारुतम् । गणम् । गिरिऽस्थाम् । वृषणम् । हुवे । अस्य । सोमस्य । पीतये ॥ ८.९४.१२
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 94; मन्त्र » 12
अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 29; मन्त्र » 6
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अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 29; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
That host of Maruts generous as showers of clouds, abiding on high as on the peaks of mountains, I invoke and call to come and join us in the celebration of life’s beauty and glory for the experience and awareness of its divinity.
मराठी (1)
भावार्थ
पूर्वोक्त गुणांनी संपन्न माणसांचा समूह (संगठित होऊन) पदार्थ- ज्ञानरूपी दान-अदान क्रिया (यज्ञ=सत्कर्म) सफल करू शकतो. ॥१२॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(अस्य सोमस्य पीतये) पूर्वोक्त सोम का पान करने कराने के लिये मैं (गिरिष्ठाम्) उच्च आसन प्राप्त (वृषणम्) [कमनीयों की] वर्षा करने वाले (त्यं नु) उसी (मारुतं गणम्) जन समूह का हुवे आह्वान करता हूँ॥१२॥
भावार्थ
पूर्वोक्त गुणों से युक्त लोगों का समूह संगठित होकर पदार्थ-ज्ञान रूपी दान आदान क्रिया (यज्ञ-सत्कर्म) को सफल करने में समर्थ है॥१२॥ अष्टम मण्डल में चौरानवेवाँ सूक्त व उनतीसवाँ वर्ग समाप्त।
विषय
उन के कर्त्तव्य।
भावार्थ
और ( अस्य सोमस्य पीतये ) इस राज्य-ऐश्वर्य के पालन के लिये मैं (त्यं नु) उस ( गिरिष्ठां ) वाणी में स्थित वा कुशल ( वृषणं ) ज्ञानादि की वर्षा करने वाले वा बलवान् ( मारुतं गणं ) मनुष्यों के समूह को ( हुवे ) बुलाता हूं। इत्येकोनत्रिंशो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
बिन्दुः पूतदक्षो वा ऋषिः॥ मरुतो देवता॥ छन्दः—१, २, ८ विराड् गायत्री। ३, ५, ७, ९ गायत्री। ४, ६, १०—१२ निचृद् गायत्री॥
विषय
गिरिष्ठां वृषणम्
पदार्थ
[१] (त्यम्) = उस (मारुतं गणम्) = प्राणों के गण को (नु) = निश्चय से (हुवे) = पुकारता हूँ, प्राणसाधना प्रवृत्त होता हूँ। इन प्राणों के गण का मैं आराधन करता हूँ जो (गिरिष्ठाम्) = ज्ञान की वाणियों में स्थित होनेवाला है तथा (वृषणम्) = हमें शक्तिशाली बनानेवाला है। [२] इस प्राणगण को मैं (अस्य सोमस्य) = इस सोम के (पीतये) = पान व रक्षण के लिये पुकारता हूँ।
भावार्थ
भावार्थ- प्राणसाधना सोमरक्षण द्वारा हमें ज्ञान की वाणियों में स्थित करती है और शक्तिशाली बनाती है। इस प्रकार सोमरक्षण द्वारा हम इस संसाररूपी 'अश्मन्वती नदी को पार करने में समर्थ होते हैं। सो 'तिरश्ची:' बनते हैं [crossing ouer, traversing]। आंगिरस - अंग-प्रत्यंग में रसवाले तो होते ही हैं। यह तिरश्ची आंगिरस ही अगले सूक्त का ऋषि है-
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