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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 94 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 94/ मन्त्र 3
    ऋषिः - बिन्दुः पूतदक्षो वा देवता - मरूतः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    तत्सु नो॒ विश्वे॑ अ॒र्य आ सदा॑ गृणन्ति का॒रव॑: । म॒रुत॒: सोम॑पीतये ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तत् । सु । नः॒ । विश्वे॑ । अ॒र्यः । आ । सदा॑ । गृ॒ण॒न्ति॒ । का॒रवः॑ । म॒रुतः॑ । सोम॑ऽपीतये ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तत्सु नो विश्वे अर्य आ सदा गृणन्ति कारव: । मरुत: सोमपीतये ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तत् । सु । नः । विश्वे । अर्यः । आ । सदा । गृणन्ति । कारवः । मरुतः । सोमऽपीतये ॥ ८.९४.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 94; मन्त्र » 3
    अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 28; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    That same beauty and glory of existence and the mother’s magnanimity, all our poets and pioneers celebrate in song and heroic action. O Maruts, magnanimous men of might, come, act, and enjoy this soma of the Mother’s gift of glory.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    सृष्टि रचनाकार परमेश्वराच्या गुणांचे कीर्तन त्याच्याद्वारे निर्माण केलेल्या सुखदायक पदार्थांच्या उत्तम व्यवहाराचा उपदेश आहे हे समजूनच आम्हालाही त्याच्या गुणांचे कीर्तन व श्रवण केले पाहिजे. ॥३॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (तत्) इसके बाद (विश्वे) सभी (अर्यः) प्रगतिशील, (कारवः) स्तुत्य प्रशंसनीय कर्मों के करनेवाले या वेदवाणी से गुणगान करने वाले, (मरुतः) मानव (सु सोमपीतये) परमात्मा द्वारा उत्पादित पदार्थों के सुष्ठु व्यवहार हेतु (नः) हमें (आ गृणन्ति) भलीभाँति उपदेश देते हैं॥३॥

    भावार्थ

    सृष्टि के रचयिता प्रभु के गुणों का कीर्तन उसके द्वारा रचित सुखदायी पदार्थों के सुष्ठु व्यवहार का उपदेश है। यह समझ कर ही हम भी उसके गुणकीर्तन का श्रवण करें॥३॥

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    विषय

    उन के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    ( विश्वे कारवः ) सब कर्मकुशल ( मरुतः ) बलवान् मनुष्य एवं व्यापारी जन, ( सोम-पीतये ) स्वयं भी अन्नवत् ऐश्वर्य को प्राप्त करने के लिये, ( सदा ) सदैव ( तत् नः सु अर्यः ) वह हमारा उत्तम पूज्य स्वामी है। इस प्रकार ( आ गृणन्ति ) कहते और उस की स्तुति करते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    बिन्दुः पूतदक्षो वा ऋषिः॥ मरुतो देवता॥ छन्दः—१, २, ८ विराड् गायत्री। ३, ५, ७, ९ गायत्री। ४, ६, १०—१२ निचृद् गायत्री॥

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    विषय

    तत् सु नो अर्यः

    पदार्थ

    [१] (विश्वे) = सब (काव:) = कार्यों को कुशलता से करनेवाले स्तोता लोग आ (गृणन्ति) = सदा यही सर्वत्र कहते हैं कि (तत्) = वह ब्रह्म ही (नः) = हमारा (सु अर्य:) = उत्तम स्वामी है। प्रभु को ही अधिष्ठाता मानकर उसके निर्देशों के अनुसार ये अपना जीवन बिताते हैं। [२] ये (मरुतः) = मितरावी व खूब क्रियाशील पुरुष (सोमपीतये) = शरीर में सोम का पान करने के लिये होते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु को अपना स्वामी जानकर उसकी आराधना के लिये ही हम अपने कर्त्तव्यों को सम्यक् करें। परिमित बोलनेवाले खूब क्रियाशील बनकर सोम का शरीर में ही रक्षण करनेवाले हों।

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