ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 94/ मन्त्र 7
कद॑त्विषन्त सू॒रय॑स्ति॒र आप॑ इव॒ स्रिध॑: । अर्ष॑न्ति पू॒तद॑क्षसः ॥
स्वर सहित पद पाठकत् । अ॒त्वि॒ष॒न्त॒ । सू॒रयः॑ । ति॒रः । आपः॑ऽइव । स्रिधः॑ । अर्ष॑न्ति । पू॒तऽद॑क्षसः ॥
स्वर रहित मन्त्र
कदत्विषन्त सूरयस्तिर आप इव स्रिध: । अर्षन्ति पूतदक्षसः ॥
स्वर रहित पद पाठकत् । अत्विषन्त । सूरयः । तिरः । आपःऽइव । स्रिधः । अर्षन्ति । पूतऽदक्षसः ॥ ८.९४.७
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 94; मन्त्र » 7
अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 29; मन्त्र » 1
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अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 29; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
How brilliant and blazing are the brave, we scholars and warriors of pure and unsullied power and expertise who, like turbulent waters, break the violent down and move forward on the paths of rectitude!
मराठी (1)
भावार्थ
परमेश्वराच्या सृष्टीत विद्यमान असलेल्या पदार्थांचा त्यांच्या गुणधर्मानुकूल ठीक ठीक (न्याययुक्त) व्यवहार करून व सर्व चेतनांबरोबरही त्यांच्या सामर्थ्य गुणधर्मानुसार व्यवहार करून न्यायकारी बनलेले वरुण (श्रेष्ठ विद्वान) पुरुष अधिक यशस्वी होतात. ॥७॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(पूतदक्षसः) स्व सामर्थ्य को निर्दोष रखते हुए (सूरयः) विद्वान् जन जैसे (आपः) जल को (तिरः) तिर्यक् गति से सुगमता सहित पार करते हैं। वैसे ही सुगम रीति से (स्रिधः) सद्व्यवहार के विरोधियों को हताश करते हुए जो (अर्षन्ति) आगे बढ़ते हैं, वे (कत्) कितने (अत्विषन्तः) सुशोभित होते हैं॥७॥
भावार्थ
प्रभु की सृष्टि में विद्यमान पदार्थों का उनके गुणधर्मानुसार ठीक-ठीक व्यवहार [न्याययुक्त] कर तथा सभी चेतनों के साथ भी उनकी सामर्थ्य, गुण, धर्म के अनुसार व्यवहार कर न्यायकारी बने, वरुण-पुरुष बहुत अधिक यश पाते हैं॥७॥
विषय
उन के कर्त्तव्य।
भावार्थ
( सूरयः आप इव तिरः ) सूर्य की किरणें जिस प्रकार मेघस्थ जलों को छिन्न भिन्न कर फिर चमकते हैं उसी प्रकार ( पूत-दक्षसः ) पवित्र ज्ञान और कर्म वाले, ( स्त्रिधः ) दुष्ट हिंसक अन्तः शत्रु-सैन्यों को ( तिरः ) दूर करके, ( सूरयः ) विद्वान् तेजस्वी जन ( कत् अत्विषन्त ) कितना चमकते हैं और (कत् अर्षन्ति) कितना और कैसे आगे बढ़ते हैं यह दर्शनीय है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
बिन्दुः पूतदक्षो वा ऋषिः॥ मरुतो देवता॥ छन्दः—१, २, ८ विराड् गायत्री। ३, ५, ७, ९ गायत्री। ४, ६, १०—१२ निचृद् गायत्री॥
विषय
सूरयः -पूतदक्षसः
पदार्थ
[१] हे प्रभो ! (कत्) = [कदा] वह समय कब आयेगा जब कि मेरे जीवन में (अत्षिन्त) = ये मरुत् दीप्त होते हैं, चमक उठते हैं। ये मरुत् (सूरयः) = मुझे ज्ञानी बनानेवाले हैं। प्राणसाधना से ही उसी सोमरक्षण होकर ज्ञानदीप्ति प्राप्त होती है। ये मरुत् (स्त्रिधः) = शत्रुओं का संहार करनेवाले हैं, प्रकार (इव) = जैसे (तिर:) = रुधिर में तिरोहित हुए हुए (आप:) = रेत: कण रोगों का विनाश करते हैं। [२] (पूतदक्षसः) = शरीरस्थ बल को पवित्र करनेवाले ये मरुत् (अर्षन्ति) = शरीर में गति करते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- प्राणसाधना से [क] ज्ञानदीप्ति प्राप्त होती है, [ख] रोगकृमि व वासनारूप शत्रुओं का विनाश होता है, [ग] बल पवित्र होता है।
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