ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 68/ मन्त्र 10
ऋषिः - वत्सप्रिर्भालन्दनः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
ए॒वा न॑: सोम परिषि॒च्यमा॑नो॒ वयो॒ दध॑च्चि॒त्रत॑मं पवस्व । अ॒द्वे॒षे द्यावा॑पृथि॒वी हु॑वेम॒ देवा॑ ध॒त्त र॒यिम॒स्मे सु॒वीर॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठए॒व । नः॒ । सो॒म॒ । प॒रि॒ऽसि॒च्यमा॑नः । वयः॑ । दध॑त् । चि॒त्रऽत॑मम् । प॒व॒स्व॒ । अ॒द्वे॒षे । द्यावा॑पृथि॒वी इति॑ । हु॒वे॒म॒ । देवाः॑ । ध॒त्त । र॒यिम् । अ॒स्मे इति॑ । सु॒ऽवीर॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
एवा न: सोम परिषिच्यमानो वयो दधच्चित्रतमं पवस्व । अद्वेषे द्यावापृथिवी हुवेम देवा धत्त रयिमस्मे सुवीरम् ॥
स्वर रहित पद पाठएव । नः । सोम । परिऽसिच्यमानः । वयः । दधत् । चित्रऽतमम् । पवस्व । अद्वेषे । द्यावापृथिवी इति । हुवेम । देवाः । धत्त । रयिम् । अस्मे इति । सुऽवीरम् ॥ ९.६८.१०
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 68; मन्त्र » 10
अष्टक » 7; अध्याय » 2; वर्ग » 20; मन्त्र » 5
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अष्टक » 7; अध्याय » 2; वर्ग » 20; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(सोम) चराचरोत्पादक परमात्मन् ! (परिषिच्यमानः) ज्ञानयोगकर्मयोगाभ्यां साक्षात्कृतो भवान् (नः) अस्मान् (चित्रतमम्) अनेकविधं (वयः) बलं (दधदेव) धारयन् (पवस्व) पवित्रयतु। तथा (अद्वेषे द्यावापृथिवी) द्वेषरहितस्य द्युलोकपृथिवीलोकस्य (हुवेम) प्रार्थनां कुर्मः। अथ च (देवाः) दिव्यगुणसम्पन्ना विद्वांसः (अस्मे) अस्मासु (सुवीरं रयिम्) वीरयुक्तमैश्वर्यं (धत्त) धारयन्तु ॥१०॥ इत्यष्टषष्टितमं सूक्तं विंशो वर्गश्च समाप्तः।
हिन्दी (3)
पदार्थ
(सोम) हे परमात्मन् ! (परिषिच्यमानः) ज्ञानयोग और कर्मयोग से साक्षात्कृत आप (नः) हम लोगों को (चित्रतमं) नानाविध (वयः) बल को (दधत् एव) अवश्य धारण कराते हुए (पवस्व) पवित्र करें तथा (अद्वेषे द्यावापृथिवी) द्युलोक और पृथिवीलोक को द्वेष से रहित होने की (हुवेम) हम लोग प्रार्थना करते हैं और (देवाः) दिव्यगुणसंपन्न विद्वान् (अस्मे) हम लोगों में (सुवीरं रयिं) सुन्दर वीरोंवाले ऐश्वर्य को (धत्त) धारण कराएँ ॥१०॥
भावार्थ
जो लोग कर्मयोगी और ज्ञानयोगियों की संगति में रहते हैं, उनके लिए परमात्मा नानाविध ऐश्वर्यों को देता है और द्युलोक और पृथिवीलोक उनके द्वेषियों से सर्वथा रहित हो जाता है। अर्थात् वे मित्रता की दृष्टि से सबको देखते हैं ॥१०॥ यह ६८ वाँ सूक्त और २० वाँ वर्ग समाप्त हुआ।
विषय
अद्वेषे द्यावापृथिवी
पदार्थ
[१] हे (सोम) = वीर्यशक्ते! एवा इस प्रकार (परिषिच्यमानः) = शरीर में सर्वत्र सिक्त होता हुआ तू (नः) = हमारे लिये (चित्रतमम्) = अतिशयित ज्ञानवाले (वय:) = जीवन को (दधत्) = धारण करता हुआ (पवस्व) = प्राप्त हो । शरीर में सुरक्षित हुआ हुआ तू ज्ञानाग्नि का ईंधन बनता है और हमारे ज्ञान को दीप्त करता है। [२] हम सोमरक्षण के द्वारा (द्यावापृथिवी) = सारे संसार को (अद्वेषे) = द्वेषशून्य रूप में (हुवेम) = पुकारते हैं। वस्तुतः सोमरक्षणवाला पुरुष द्वेषशून्य होता है। हे (देवा:) = देवो! (अस्मे) = हमारे लिये (सुवीरम्) = उत्तम वीरतावाले (रयिम्) = धन को (धत्त) = धारण करिये। हम सोमरक्षण द्वारा वीर व धनों के विजेता बनें।
भावार्थ
भावार्थ- सोमरक्षण से जीवन 'ज्ञानपूर्ण, निर्देष, धनवाला व वीरतापूर्ण' होता है । सोमरक्षण के महत्त्व को समझकर सोम का शरीर में रक्षण करनेवाला 'हिरण्यस्तूप' बनता है । [हिरण्यं = वीर्य, स्तूप समुच्छ्राये] वीर्य की शरीर में ऊर्ध्वगति करनेवाला । यह हिरण्यरूप का स्तवन करता सोम हुआ कहता है-
विषय
परमेश्वर सर्वव्यापक, उसकी उपासना, पक्षान्तर में राजा के अभिषेक का वर्णन।
भावार्थ
हे (सोम) ऐश्वर्यवन् जगत् का शासन करने वाले ! तू (परि-सिच्यमानः) सब प्रकार से परिषिक्त होकर, स्तुति किया जाकर (चित्रतमं वयः दधत्) अति अद्भुत बल-वीर्य, को धारण करता हुआ (पवस्व) हमें प्राप्त हो। हम (द्यावा-पृथिवी) आकाश और भूमि के समान अप्रीति भावों से रहित माता पिताओं को (हुवेम) प्राप्त करें उनका आदर करें और हे (देवाः) वीर विद्वान् जनो ! (अस्मे सुवीरं रयिम् धत्त) हमें उत्तम पुत्र, वीर जन सहित ऐश्वर्य प्रदान करो। इति दशमो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वत्सप्रिर्भालन्दनं ऋषिः। पवमानः सोमो देवता ॥ छन्द:– १, ३, ६, ७ निचृज्जगती। २,४, ५, ९ जगती। ८ विराड् जगती। १० त्रिष्टुप्। दशर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Thus adored, exalted and served, O Soma, flow with vibrant presence, bringing us the most wonderful food, health and strength. We invoke the earth and heaven free from jealousy, contradiction and enmity, and pray may the divinities of nature and humanity bear and bring us wealth, honour and excellence worthy of the brave.
मराठी (1)
भावार्थ
जे लोक कर्मयोगी व ज्ञानयोगी यांच्या सहवासात राहतात. त्यांना परमात्मा नानाविधऐश्वर्य देतो व त्यांच्यासाठी द्युलोक आणि पृथ्वीलोक द्वेषाने रहित होतो. अर्थात ते सर्वांशी मित्रता ठेवतात. ॥१०॥
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