Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 68 के मन्त्र
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 68/ मन्त्र 4
    ऋषिः - वत्सप्रिर्भालन्दनः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - जगती स्वरः - निषादः

    स मा॒तरा॑ वि॒चर॑न्वा॒जय॑न्न॒पः प्र मेधि॑रः स्व॒धया॑ पिन्वते प॒दम् । अं॒शुर्यवे॑न पिपिशे य॒तो नृभि॒: सं जा॒मिभि॒र्नस॑ते॒ रक्ष॑ते॒ शिर॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सः । मा॒तरा॑ । वि॒ऽचर॑न् । वा॒जऽय॑न् । अ॒पः । प्र । मेधि॑रः । स्व॒धया॑ । पि॒न्व॒ते॒ । प॒दम् । अं॒शुः । यवे॑न । पि॒पि॒शे॒ । य॒तः । नृऽभिः॑ । सम् । जा॒मिऽभिः॑ । नस॑ते । रक्ष॑ते । शिरः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स मातरा विचरन्वाजयन्नपः प्र मेधिरः स्वधया पिन्वते पदम् । अंशुर्यवेन पिपिशे यतो नृभि: सं जामिभिर्नसते रक्षते शिर: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सः । मातरा । विऽचरन् । वाजऽयन् । अपः । प्र । मेधिरः । स्वधया । पिन्वते । पदम् । अंशुः । यवेन । पिपिशे । यतः । नृऽभिः । सम् । जामिऽभिः । नसते । रक्षते । शिरः ॥ ९.६८.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 68; मन्त्र » 4
    अष्टक » 7; अध्याय » 2; वर्ग » 19; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (सः) असौ (मेधिरः) प्राज्ञः कर्मयोगी (मातरा) द्यावापृथिव्योः (विचरन्) परिभ्रमन् तथा (अपः) कर्मयोगस्य (वाजयन्) बलं   प्रददन् (पदम्) कर्मयोगपदं (स्वधया) अनुष्ठानरूपक्रियया (पिन्वते) पुष्णाति (अंशुः) ज्ञानप्रकाशेन प्रदीप्तो विद्वान् (यवेन) स्वकीयभवाप्यययोगेन (पिपिशे) योगाङ्गं दधाति (यतः) यतः स कर्मयोगी (जामिभिर्नृभिः) परस्परसङ्गत्या गन्तृजिज्ञासुद्वारा (सन्नसते) स्वकीयकर्तव्यपालनं करोति। अथ च (शिरः) शीर्णान् पतितानिति यावत् (रक्षते) पवते ॥४॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (सः) वह (मेधिरः) प्राज्ञ कर्मयोगी (मातरा) सब जीवों की माता के समान द्युलोक में तथा पृथिवीलोक में (विचरन्) विचरता हुआ और (अपः) कर्मरूपी योग का (वाजयन्) बल प्रदान करता हुआ (पदं) कर्मयोग के पद को (स्वधया) अनुष्ठानरूप क्रिया से (पिन्वते) पुष्ट करता है। (अंशुः) ज्ञानरूप प्रकाश से प्रदीप्त विद्वान् (यवेन) अपने भाव और अप्ययरूप योग से (पिपिशे) योगाङ्गों को धारण करता है। (यतः) जिससे कर्मयोगी (जामभिः नृभिः) परस्पर संगति बाँध कर चलनेवाले जिज्ञासु द्वारा (सं नसते) अपने कर्तव्य का पालन करता है और (शिरः) पतित पुरुषों की (रक्षते) रक्षा करता है ॥४॥

    भावार्थ

    कर्मयोगी का यह कर्तव्य है कि वह अकर्मण्यता दोष से ग्रस्त मनुष्यों में उद्योग उत्पन्न करके उनमें जागृति उत्पन्न करे ॥४॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    अंशुः यवेन पिपिशे

    पदार्थ

    [१] (सः) = वह सोम मातरा द्युलोक व पृथिवीलोक में, मस्तिष्क व शरीर में (विचरन्) = गति करता हुआ तथा (अपः) = अन्तरिक्षलोक को [नि० १ । ३] (वाजयन्) = सबल करता हुआ, हृदय को सबल बनाता हुआ, (मेधिरः) = प्रकृष्ट बुद्धिवाला होता हुआ (स्वधया) = आत्मधारणशक्ति के द्वारा (पदम्) = उस प्राप्त करने योग्य प्रभु को (प्रपिन्वते) = हमारे में बढ़ाता है। सुरक्षित सोम शरीर को सशक्त, मस्तिष्क को दीप्त ज्ञानाग्निवाला तथा हृदय को सबल बनाता है। हमें बुद्धिमान् बनाकर प्रभु प्राप्ति के योग्य करता है। [२] (अंशुः) = प्रकाश की किरणोंवाला यह सोम (यवेन) = बुराइयों के अमिश्रण व अच्छाइयों के मिश्रण से पिपिशे जीवन को अलंकृत कर देता है [To adore ] । (नृभिः) = उन्नतिपथ पर चलनेवाले लोगों से (यतः) = काबू किया हुआ यह सोम (जामिभिः) = सद्गुणों के विकास से (संनसते) = सम्यक् गतिवाला होता है और (शिरः रक्षते) = मस्तिष्क का रक्षण करता है । सोमरक्षण से मस्तिष्क का उत्तम रक्षण होता है। वस्तुतः ज्ञानाग्नि का एक मात्र ईंधन सोम ही है ।

    भावार्थ

    भावार्थ- सुरक्षित सोम शरीर, मस्तिष्क व हृदय तीनों को ही सुन्दर बनाता है। यह सब बुराइयों को दूर करके जीवन को सजा देता है ।

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    माता पिता की सेवा और अपने शक्तिमान् होने का उपदेश।

    भावार्थ

    (मेधिरः) उत्तम बुद्धिमान् पुरुष (सः) वह (मातरौ विचरन्) माता पिता ज्ञानी पुरुषों की विविध प्रकार से सेवा करता हुआ उनको प्राप्त कर (अपः वाजयन्) कर्म को सफल, समृद्ध, ज्ञानयुक्त करता हुआ, (स्वधया) अपनी धारणा, पालना शक्ति से (पदम्) अपने पद या ज्ञान को (पिन्वते) समृद्ध करता है। वह (अंशुः) भोक्ता होकर (नृभिः यतः) उत्तम पुरुषों द्वारा नियम में बद्ध रह कर (यवेन पिपिशे) यव आदि अन्नद्वारा उत्तम रूपवान् हृष्ट पुष्ट हो। (जामिभिः सं नसते) सहयोगी, बन्धु जनों, सहायक शक्तियों से प्रेमपूर्वक मिलकर रहे और (शिरः रक्षते) अपने शिर के समान मुख्य पद की रक्षा करे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वत्सप्रिर्भालन्दनं ऋषिः। पवमानः सोमो देवता ॥ छन्द:– १, ३, ६, ७ निचृज्जगती। २,४, ५, ९ जगती। ८ विराड् जगती। १० त्रिष्टुप्। दशर्चं सूक्तम्॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    The lord grants that power and bliss of soma which vibrates with motherly heaven and earth, energising the cosmic waters and the dynamics of nature and humanity, which partakes of the omniscience of divinity, flows and swells the holy spirit of the yajnic meditative soul and which, invoked and served by noble humans of kindred nature with meditation inputs, grows from shoots to flowers and unites with, preserves and promotes the highest faculties of humanity.

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    कर्मयोग्याचे हे कर्तव्य आहे की त्याने अकर्मण्य व दोषग्रस्त माणसांमध्ये उद्योगप्रियता जागृत करावी. ॥४॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top