ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 68/ मन्त्र 5
सं दक्षे॑ण॒ मन॑सा जायते क॒विॠ॒तस्य॒ गर्भो॒ निहि॑तो य॒मा प॒रः । यूना॑ ह॒ सन्ता॑ प्रथ॒मं वि ज॑ज्ञतु॒र्गुहा॑ हि॒तं जनि॑म॒ नेम॒मुद्य॑तम् ॥
स्वर सहित पद पाठसम् । दक्षे॑ण । मन॑सा । जा॒य॒ते॒ । क॒विः । ऋ॒तस्य॑ । गर्भः॑ । निऽहि॑तः । य॒मा । प॒रः । यूना॑ । ह॒ । सन्ता॑ । प्र॒थ॒मम् । वि । ज॒ज्ञ॒तुः॒ । गुहा॑ । हि॒तम् । जनि॑म । नेम॑म् । उत्ऽय॑तम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
सं दक्षेण मनसा जायते कविॠतस्य गर्भो निहितो यमा परः । यूना ह सन्ता प्रथमं वि जज्ञतुर्गुहा हितं जनिम नेममुद्यतम् ॥
स्वर रहित पद पाठसम् । दक्षेण । मनसा । जायते । कविः । ऋतस्य । गर्भः । निऽहितः । यमा । परः । यूना । ह । सन्ता । प्रथमम् । वि । जज्ञतुः । गुहा । हितम् । जनिम । नेमम् । उत्ऽयतम् ॥ ९.६८.५
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 68; मन्त्र » 5
अष्टक » 7; अध्याय » 2; वर्ग » 19; मन्त्र » 5
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अष्टक » 7; अध्याय » 2; वर्ग » 19; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
स कर्मयोगी (दक्षेण मनसा) समाहितमनसा (ऋतस्य कविः सञ्जायते) सत्यस्य कथनकर्ता भवति। (यमा) परमात्मना स कर्मयोगी (परः) उत्तमः (निहितः) सुरक्षितः (गर्भः) गर्भस्थानीयः कृतः। (यूना सन्ता) कर्मयोगिज्ञानयोगिनावुभावपि कर्मयोगज्ञानयोगौ प्रपूरयन्तौ (ह) प्रसिद्धौ (गुहाहितम्) अन्तःकरणगुहास्थितं परमात्मानं (प्रथमम्) पूर्वं (विजज्ञतुः) विजानीतः। यः परमात्मा (जनिम) सर्वोत्पादकस्तथा (नेमम्) सर्वनियामकोऽस्ति। अथ च (उद्यतम्) सर्वोपरि बलरूपोऽस्ति ॥५॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
वह कर्मयोगी (दक्षेण मनसा) समाहित मन से (ऋतस्य कविः संजायते) सच्चाई का कथन करनेवाला होता है। (यमा) देव ने उसे (परः) सर्वोपरि (निहितः) सुरक्षित (गर्भः) गर्भस्थानीय बनाया। (यूना सन्ता) कर्मयोग तथा ज्ञानयोग को पूर्ण करते हुए ज्ञानयोगी और कर्मयोगी ये (ह) प्रसिद्ध दोनों (गुहाहितं) अन्तःकरणरूपी गुहा में निहित परमात्मा को (प्रथमं) सबसे पहिले (विजज्ञतुः) जानते हैं। जो परमात्मा (जनिम) सबकी उत्पत्ति का स्थान तथा (नेमं) सबको नियम में रखनेवाला और (उद्यतं) सर्वोपरि बलस्वरूप है ॥५॥
भावार्थ
जो परमात्मा सूक्ष्मरूप से सबके अन्तःकरण में विराजमान है, उसको कर्मयोगी और ज्ञानयोगी ही सुलभता से लाभ कर सकते हैं, अन्य नहीं ॥५॥
विषय
दक्ष मन
पदार्थ
[१] (कविः) = यह क्रान्तदर्शी सोम हमें क्रान्तप्रज्ञ बनानेवाला सोम (दक्षेण मनसा) = कार्यों को कुशलता से करनेवाले मन से (जायते) = हमारे में प्रादुर्भूत होता है। सुरक्षित सोम हमें 'क्रान्तप्रज्ञ व दक्ष मन वाला' बनाता है। यह सोम (ऋतस्य गर्भः) = ऋत का ग्रहण करनेवाला होता है। (यमा निहितः) = संयम के द्वारा शरीर में स्थापित हुआ हुआ (परः) = अत्यन्त उत्कृष्ट होता है । [२] इस सोम के सुरक्षित होने पर (प्रथमम्) = पहले (ह) = निश्चय से (यूना सन्ता) = मस्तिष्क और शरीर सदा युवा से होते हुए, अक्षीण शक्तिवाले होते हुए, न जीर्ण होते हुए (विजज्ञतुः) = प्रकट होते हैं । और फिर (गुहा हितम्) = बुद्धि रूप गुहा में स्थापित (जनिम) = ज्ञान का प्रादुर्भाव (नेमं उद्यतम्) = [In parts ] कुछ-कुछ उद्यत होता है। अर्थात् सोमरक्षण से अन्तर्ज्ञान प्रादुर्भूत होने लगता है ।
भावार्थ
भावार्थ- सोमरक्षण से बुद्धि का विकास होता है, मन की दक्षता प्राप्त होती है, जीवन ऋतमय बनता है। मस्तिष्क व शरीर अच्छे बनते हैं। हृदय में अन्तर्ज्ञान का प्रादुर्भाव होने लगता है ।
विषय
ब्रह्मचारी ब्रह्मचारिणी का विद्या-गर्भ से उत्तम जन्म।
भावार्थ
(कविः) विद्वान् पुरुष (दक्षेण मनसा) खूब बढ़े हुए, शक्तियुक्त चित्त वा ज्ञान से (सं जायते) अच्छी प्रकार प्रकट होता है। वह (ऋतस्य) सत्य ज्ञान, वेद, तेज और बल को (गर्भः) अपने भीतर ग्रहण करने वाला (परः) सर्वोत्कृष्ट होकर (यमा निहितः) यम-संयम द्वारा स्थिर होता है। (यूना ह सन्ता) ब्रह्मचारी और ब्रह्मचारिणी दोनों युवा और युवति होकर (प्रथमम्) पहले (जनिम) जन्म को (गुहा) गुहा, बुद्धि, वेद वाणी के गर्भ में (वि जज्ञतुः) विशेष रूप से प्राप्त करते हैं और (नेमम्) और शेष जन्म को वे (उद्यतम्) और उत्तम होकर प्राप्त होते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वत्सप्रिर्भालन्दनं ऋषिः। पवमानः सोमो देवता ॥ छन्द:– १, ३, ६, ७ निचृज्जगती। २,४, ५, ९ जगती। ८ विराड् जगती। १० त्रिष्टुप्। दशर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (1)
Meaning
The creative soul, Soma, is born along with mind and noble intelligence, the seed and seat of divine law and wisdom hidden somewhere far deep by the laws of nature. Being together, they, mind and intelligence, are first physically born as in any other creature, the other, higher and enlightened self, is bom, rather reborn, as it is raised through purity and elevation of the mind from the depth of its hiding cave.
मराठी (1)
भावार्थ
जो परमात्मा सूक्ष्मरूपाने सर्वांच्या अंत:करणात विराजमान आहे. कर्मयोगी व ज्ञानयोगी यांना तो सहजपणे लाभू शकतो. इतरांना नाही. ॥५॥
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