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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 68 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 68/ मन्त्र 7
    ऋषिः - वत्सप्रिर्भालन्दनः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    त्वां मृ॑जन्ति॒ दश॒ योष॑णः सु॒तं सोम॒ ऋषि॑भिर्म॒तिभि॑र्धी॒तिभि॑र्हि॒तम् । अव्यो॒ वारे॑भिरु॒त दे॒वहू॑तिभि॒र्नृभि॑र्य॒तो वाज॒मा द॑र्षि सा॒तये॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वाम् । मृ॒ज॒न्ति॒ । दश॑ । योष॑णः । सु॒तम् । सो॒म॒ । ऋषि॑ऽभिः । म॒तिऽभिः॑ । धी॒तिऽभिः॑ । हि॒तम् । अव्यः॑ । वारे॑भिः । उ॒त । दे॒वहू॑तिऽभिः । नृऽभिः॑ । य॒तः । वाज॑म् । आ । द॒र्षि॒ । सा॒तये॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वां मृजन्ति दश योषणः सुतं सोम ऋषिभिर्मतिभिर्धीतिभिर्हितम् । अव्यो वारेभिरुत देवहूतिभिर्नृभिर्यतो वाजमा दर्षि सातये ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वाम् । मृजन्ति । दश । योषणः । सुतम् । सोम । ऋषिऽभिः । मतिऽभिः । धीतिऽभिः । हितम् । अव्यः । वारेभिः । उत । देवहूतिऽभिः । नृऽभिः । यतः । वाजम् । आ । दर्षि । सातये ॥ ९.६८.७

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 68; मन्त्र » 7
    अष्टक » 7; अध्याय » 2; वर्ग » 20; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ प्रसङ्गसङ्गत्या परमात्मप्राप्तिर्वर्ण्यते।

    पदार्थः

    हे परमात्मन् ! (सुतम्) स्वयंसिद्धं (त्वाम्) भवन्तं (दश योषणः) दश धृत्यादिधर्मसाधनानि (मृजन्ति) साक्षात्कुर्वन्ति। (सोम) हे जगदीश ! (त्वं (मतिभिः) ज्ञानयोगिभिस्तथा (धीतिभिः) कर्मयोगिभिः (ऋषिभिः) तत्त्वदर्शिभिः (हितम्) साक्षात्कृतोऽसि। तथा त्वं (अव्यः) सर्वरक्षकोऽसि। (उत) अथ च (वारेभिर्देवहूतिभिर्नृभिः) वरणीयज्ञानयोगिकर्मयोगिमनुष्यद्वारा (सातये) अज्ञाननिवृत्तये (वाजम्) बलं (यतः) यस्मात् कारणात् (आदर्षि) ददास्यतः सर्वोपासनीयोऽसि ॥७॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब प्रसङ्गसङ्गति से परमात्मा की प्राप्ति का वर्णन करते हैं।

    पदार्थ

    हे परमात्मन् ! (सुतं) स्वयंसिद्ध (त्वां) तुमको (दश योषणः) धृत्यादि धर्म के दस साधन (मृजन्ति) साक्षात्कार करते हैं। (सोम) हे परमात्मन् ! तुम (मतिभिः) ज्ञानयोगी तथा (धीतिभिः) कर्मयोगी (ऋषिभिः) ऋषियों से (हितं) साक्षात्कार किये जाते हो तथा तुम (अव्यः) सर्वरक्षक हो। (उत) और (वारेभिः देवहूतिभिः नृभिः) सर्वोपरि वरणीय योगी मनुष्यों द्वारा (सातये) अज्ञाननिवृत्ति के लिए (वाजं) बल को (यतः) जिस हेतु (आदर्षि) देते हो, अतः तुम सर्वोपरि उपासनीय हो ॥७॥

    भावार्थ

    परमात्मा ज्ञानयोगी तथा कर्मयोगियों को अनन्त बल देता है, इसलिए मनुष्य को ज्ञानयोगी तथा कर्मयोगी अवश्य बनना चाहिए ॥७॥

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    विषय

    ऋषिभिर्मतिभिर्धीतिभिर्हितम् [स्वाध्याय - स्तुति - यज्ञ]

    पदार्थ

    [१] हे (सोम) = शरीर में 'रस, रुधिर, मांस, अस्थि, मज्जा, मेदस् व वीर्य' इस क्रम से सप्तम स्थान में उत्पन्न हुए हुए सोम ! (त्वाम्) = तुझे (दश) = दस (योषण:) = बुराइयों से पृथक् करनेवाली, अच्छाइयों से संयुक्त करनेवाली चित्तवृत्तियाँ (मृजन्ति) = शुद्ध करती हैं । इन्द्रियों की संख्या दस है । उनके साथ सम्बद्ध चित्तवृत्तियों को भी यहाँ दस कहा गया है। ये शुद्ध होती हैं, तो सोम शुद्ध बना रहता है। यह सोम (ऋषिभिः) = [ऋषिर्वेदा] ज्ञान की वाणियों से, (मतिभिः) = मननपूर्वक होनेवाली स्तुतियों से तथा (धीतिभिः) = धारणात्मक कर्मों से (हितम्) = शरीर में स्थापित किया गया है । मस्तिष्क ज्ञानवाणियों से पूर्ण हो, मन स्तुति में लगा हो तथा शरीर धारणात्मक कर्मों में लगा हो तो वासनाओं का आक्रमण न होने से सोम शरीर में ही सुरक्षित रहता है । [२] हे सोम ! तू (अव्यः) = रक्षकों में उत्तम है। (वारेभिः) = वासनाओं का निवारण करनेवाले, (उत) = और (देवहूतिभिः) = उपासना में उस महान् देव को पुकारनेवाले (नृभिः) = मनुष्यों से (यतः) = शरीर में संयत हुआ-हुआ तू (वाजम्) = बल को (आदर्षि) = सर्वथा प्राप्त कराता है और (सातये) = हमारे लिये प्रभु प्राप्ति के लिये होता है। हमें तू प्रभु के सम्भजन की वृत्तिवाला बनाता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - शरीर में सोमरक्षण के लिये 'स्वाध्याय, स्तवन व यज्ञ' सहायक होते हैं। सुरक्षित सोम हमें शक्ति देता है और प्रभु-प्रणव करता है।

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    विषय

    परमेश्वर की योग द्वारा उपासना। पक्षान्तर में—राजा का राज्याभिषेक।

    भावार्थ

    हे (सोम) ऐश्वर्यवन् ! सब के सञ्चालक ! (ऋषिभिः) ज्ञानद्रष्टा (मतिभिः) मननशील पुरुषों द्वारा (धीतिभिः) उत्तम स्तुतियों, ध्यान-धारणा आदि क्रियाओं से (हितम्) हृदय में धारित, (सुतं) उपासित (त्वां) तुझ को ही (दश योषणः) दसों चित्त वृत्तियां वा प्राण तेरा भजन करने वाली, (अव्यः) तुझ से प्रेम करने वाले आत्मा के (वारेभिः) वरण करने योग्य गुणों (उत) और (देव-हूतिभिः) सब से बड़े दान देने वाले तुझ स्वामी, सर्वप्रकाशक प्रभु की स्तुतियों सहित और (नृभिः) देह के सञ्चालक प्राणों सहित (त्वा मृजन्ति) तेरा परि शोधन करती हैं और तू (यतः) ध्यान, धारणा, समाधि इन तीन अनुष्ठान रूप संयम द्वारा उपासित होकर (सातये) भजन करने वाले उपासक को (वाजम् आदर्षि) ज्ञान, बल और ऐश्वर्य प्रदान करता है। राजा के पक्ष में—दसों दिशाओं के प्रकृति जन विद्वानों द्वारा पद पर स्थापित राजा का अभिषेक करें। वे (अव्यः वारेभिः) देशरक्षक बल के उत्तम शत्रु वारक साधनों और विजयेच्छु विद्वानों, वीरों की स्तुतियों से और वीर नायकों सहित वा उन द्वारा अभिषिक्त करें। वह बल धनादि विभाग के लिये बल को आदरपूर्वक ग्रहण करे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वत्सप्रिर्भालन्दनं ऋषिः। पवमानः सोमो देवता ॥ छन्द:– १, ३, ६, ७ निचृज्जगती। २,४, ५, ९ जगती। ८ विराड् जगती। १० त्रिष्टुप्। दशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O Soma, Spirit of the bliss of existence, ten youthful senses and vibrant pranas of the soul adore and exalt you, sung and celebrated by the sages of knowledge, thought and meditation, served by the best of men with best of homage and divine presentations, and realised and treasured by the seers. O lord of universal protection and progress, give us a vision of your divine power and presence for our ultimate victory and spiritual fulfilment.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्मा ज्ञानयोगी व कर्मयोग्यांना अनंत बल देतो. त्यासाठी माणसाने अवश्य ज्ञानयोगी व कर्मयोगी बनले पाहिजे. ॥७॥

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