ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 68/ मन्त्र 2
स रोरु॑वद॒भि पूर्वा॑ अचिक्रददुपा॒रुह॑: श्र॒थय॑न्त्स्वादते॒ हरि॑: । ति॒रः प॒वित्रं॑ परि॒यन्नु॒रु ज्रयो॒ नि शर्या॑णि दधते दे॒व आ वर॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठसः । रोरु॑वत् । अ॒भि । पूर्वाः॑ । अ॒चि॒क्र॒द॒त् । उ॒प॒ऽआ॒रुहः॑ । श्र॒थय॑न् । स्वा॒द॒ते॒ । हरिः॑ । ति॒रः । प॒वित्र॑म् । प॒रि॒ऽयन् । उ॒रु । ज्रयः॑ । नि । शर्या॑णि । द॒ध॒ते॒ । दे॒वः । आ । वर॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
स रोरुवदभि पूर्वा अचिक्रददुपारुह: श्रथयन्त्स्वादते हरि: । तिरः पवित्रं परियन्नुरु ज्रयो नि शर्याणि दधते देव आ वरम् ॥
स्वर रहित पद पाठसः । रोरुवत् । अभि । पूर्वाः । अचिक्रदत् । उपऽआरुहः । श्रथयन् । स्वादते । हरिः । तिरः । पवित्रम् । परिऽयन् । उरु । ज्रयः । नि । शर्याणि । दधते । देवः । आ । वरम् ॥ ९.६८.२
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 68; मन्त्र » 2
अष्टक » 7; अध्याय » 2; वर्ग » 19; मन्त्र » 2
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अष्टक » 7; अध्याय » 2; वर्ग » 19; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(हरिः) अपगुणापहारकः (उपारुहः) उन्नतिशीलः (सः) पूर्वोक्तविद्वान् (रोरुवत्) बलपूर्वकमुपदिशन् तथा (श्रथयन्) सत्यासत्यं विभेदयन् जिज्ञासुं (स्वादते) संस्करोति। अथ च (पूर्वाः) अनादिसिद्धपरमेश्वरस्तुतिं (अभ्यचिक्रदत्) विशालयति। तथा (देवः) दिव्यगुणो विद्वान् (शर्याणि) अज्ञानानि (तिरः) तिरस्कृत्य (पवित्रम्) शुद्धज्ञानं (परियन्) प्रकाशयन् (उर) महान्तं (ज्रयः) कर्मयोगिनं (निदधते) धारयति। अथ च (वरम्) वरणीयपदार्थं (आदधते) आददातीति यावत् ॥२॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(हरिः) दुर्गुण दूर करनेवाला (उपारुहः) उन्नतिशील (सः) पूर्वोक्त विद्वान् (रोरुवत्) बलपूर्वक उपदेश करता हुआ तथा (श्रथयन्) सत्यानृत का विभेद करता हुआ जिज्ञासु को (स्वादते) संस्कारी बनाता है और (पूर्वाः) अन्नादिसिद्ध परमात्मा की स्तुति को (अभि अचिक्रदत्) विशाल करता है और (देवः) दिव्यगुणयुक्त विद्वान् (शर्याणि) अज्ञानों का (तिरः) तिरस्कार करके (पवित्रं) पवित्र ज्ञान को (परियन्) प्रकाश करते हुए (उरु) बड़े (ज्रयः) कर्मयोगी को (निदधते) धारण कराता है। तथा (वरं) वरणीय पदार्थ को (आदधते) देता है ॥२॥
भावार्थ
सदुपदेश द्वारा अज्ञानों को निवृत्त करना पूर्ण विद्वान् का ही काम है। पूर्ण विद्वान् के उपदेश से मनुष्य ज्ञानी और विद्वानी बनकर मनुष्यजन्म के फल को उपलब्ध करता है ॥२॥
विषय
स्तवन व स्वाध्याय द्वारा सोमरक्षण
पदार्थ
[१] (सः) = वह सोमरक्षक पुरुष (रोरुवत्) = खूब ही प्रभु के नामों का उच्चारण करता है । (पूर्वा:) = सृष्टि के प्रारम्भ में दी जानेवाली इन वेदवाणियों का (अभि अचिक्रदत्) = आभिमुख्येन आह्वान करता है, उन्हें प्राप्त करने का प्रयत्न करता है । प्रभु-स्तवन व स्वाध्याय द्वारा सोमरक्षण करनेवाले इस व्यक्ति के लिये (हरिः) = यह दुःखों का हरण करनेवाला सोम (उपारुहः) = हमारे पर आरूढ़ हो जानेवाले आसुरभावों को (श्रथयन्) = ढीला करता हुआ (स्वादते) = हमारे जीवनों को मधुर बनाता है । [२] (पवित्रम्) = पवित्र हृदयवाले पुरुष को (तिरः परियन्) = तिरोहितरूप में रुधिर के साथ चारों ओर प्राप्त होता हुआ, (उरुज्रयः) = महान् विजयी बलवाला [ज्रि To overcome] (शर्याणि) = हिंसितव्यभावों को (निदधते) = नीचे धारण करता है, [न्यङ्करोति हिमस्ति सा० ] पाँव तले कुचलता है । और (देवः) = यह प्रकाशमय सोम (वरम्) = वरणीय श्रेष्ठभावों को (आदधते) = समन्तात् धारण करता है ।
भावार्थ
भावार्थ- जब स्तवन व स्वाध्याय से हम सोमरक्षण करते हैं, यह हमारे जीवनों को मधुर बनाता है, हमारे दुर्भावों को दूर करता है, और शुभभावों को सर्वतः विस्तृत करता है ।
विषय
ज्ञानवान् अध्यक्षों के कर्त्तव्य। घोषणा और उपदेशों से ज्ञान-आदेश प्रसारित करें। पवित्र शास्ता पद पर रहकर भीतरी बाहरी शत्रुओं का नाश करें।
भावार्थ
(सः) वह ज्ञानी वा अध्यक्ष (पूर्वाः) पूर्व एवं ज्ञान से परिपूर्ण वाणियों को और पूर्व की घोषणाओं को (अभि रोरुवत्) सर्वत्र उपदेश करे, प्रचारित करे। वह (हरिः) ज्ञान का संदेश दूर २ तक ले जाने वाला, अज्ञान हरण करने में समर्थ, सूर्यवत् तेजस्वी, ज्ञानी, वा वीर पुरुष (उपारुहः) समीप आने वालों को (श्रथयन्) सन्मार्ग में प्रयत्नशील करता और दुःखों से मुक्त करता हुआ (स्वादते) स्वयं भी आनन्द लाभ करता है। वह (उरु-ज्रयः) महान् पराक्रमी, विजयी होकर (तिरः) सर्वोत्तम, प्राप्त (पवित्रम्) परम पवित्र पद को (परियन्) प्राप्त करता हुआ (देवः) सूर्यवत् तेजस्वी होकर (शर्याणि नि दधते) विनाश करने योग्य अन्तः और बाह्य शत्रुओं को नाश करता और (वरम् आ दधते) वरण करने योग्य ज्ञानमय पद को धनवत् प्राप्त करता और औरों को देता है। श्रथ प्रयत्ने प्रस्थान इत्येके (चु०)। श्रथ मोक्षणे (चु०)। ये सब मन्त्र ज्ञानी परित्राजक, शासक और प्रभु आत्मा का भी वर्णन करते हैं।
टिप्पणी
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वत्सप्रिर्भालन्दनं ऋषिः। पवमानः सोमो देवता ॥ छन्द:– १, ३, ६, ७ निचृज्जगती। २,४, ५, ९ जगती। ८ विराड् जगती। १० त्रिष्टुप्। दशर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (1)
Meaning
He, eternal preceptor, refulgent dispeller of want and darkness, instant, transcendent, omniscient and eloquent master of the eternal voice, feels delighted with the rising seekers and, accepting and inspiring them, removes all superfluities and impediments, reveals and releases the soma of higher joy of knowledge and thus grants them the sacred boon they desire.
मराठी (1)
भावार्थ
सदुपदेशाद्वारे अज्ञानाची निवृत्ती करणे पूर्ण विद्वानाचेच काम आहे. पूर्ण विद्वानाच्या उपदेशाने मनुष्य ज्ञानी व विज्ञानी बनून मानवी जीवनाचे फळ प्राप्त करतो. ॥२॥
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