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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 68 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 68/ मन्त्र 3
    ऋषिः - वत्सप्रिर्भालन्दनः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    वि यो म॒मे य॒म्या॑ संय॒ती मद॑: साकं॒वृधा॒ पय॑सा पिन्व॒दक्षि॑ता । म॒ही अ॑पा॒रे रज॑सी वि॒वेवि॑ददभि॒व्रज॒न्नक्षि॑तं॒ पाज॒ आ द॑दे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वि । यः । म॒मे । य॒म्या॑ । सं॒य॒ती इति॑ स॒म्ऽय॒ती । मदः॑ । सा॒का॒म्ऽवृधा॑ । पय॑सा । पिन्व॑त् । अक्षि॑ता । म॒ही इति॑ । अ॒पा॒रे इति॑ । रज॑सी॒ इति॑ । वि॒ऽवेवि॑दत् । अ॒भि॒ऽव्रज॑न् । अक्षि॑तम् । पाजः॑ । आ । द॒दे॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वि यो ममे यम्या संयती मद: साकंवृधा पयसा पिन्वदक्षिता । मही अपारे रजसी विवेविददभिव्रजन्नक्षितं पाज आ ददे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वि । यः । ममे । यम्या । संयती इति सम्ऽयती । मदः । साकाम्ऽवृधा । पयसा । पिन्वत् । अक्षिता । मही इति । अपारे इति । रजसी इति । विऽवेविदत् । अभिऽव्रजन् । अक्षितम् । पाजः । आ । ददे ॥ ९.६८.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 68; मन्त्र » 3
    अष्टक » 7; अध्याय » 2; वर्ग » 19; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (यो मदः) यो ह्यानन्दवर्धकः कर्मयोगी (यम्या) युगलस्य (संयती) मिथः सम्बद्धस्य पृथिवीलोकस्य द्युलोकस्य च ज्ञानम् (विममे) उत्पादयति अथ च (साकम्) सहैव (पयसावृधा) ऐश्वर्येणाभ्युदयङ्गतानि   (अक्षिता) अक्षीणानि द्युलोकज्ञानानि (पिन्वत्) वर्धयति। अथ च पूर्वोक्तविद्वान् (रजसी) आकर्षणशीले (मही अपारे) पाररहितद्यावापृथिव्यौ ज्ञानेन (विवेविदत्) व्यक्तयति। तथा (अभिव्रजन्) अप्रतिहतगतिः सन् (अक्षितं पाज आददे) अनश्वरं बलं ददाति ॥३॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (यो मदः) जो आनन्द का वर्धक कर्मयोगी (यम्या) युगल (संयती) परस्पर सम्बद्ध पृथिवीलोक और द्युलोक के ज्ञान को (विममे) उत्पन्न करता है और (साकं) साथ ही (पयसा वृधा) ऐश्वर्य से बढ़ा हुआ (अक्षिता) अक्षीण द्युलोक (रजसी) जो आकर्षणशील है, उसको ज्ञान द्वारा (विवेविदत्) व्यक्त करता है। तथा (अभिव्रजन्) अव्याहतगति होता हुआ (अक्षितं पाज आददे) क्षयरहित बल को देता है ॥३॥

    भावार्थ

    कर्मयोगी विद्वान् के उपदेश से ही मनुष्य को पृथिवीलोक और द्युलोक का ज्ञान होता है और उसी के सदुपदेश से अक्षय फल मिलता है ॥३॥

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    विषय

    अक्षीण शक्तिवाले 'मस्तिष्क व शरीर'

    पदार्थ

    [१] (यः) = जो (मदः) = उल्लास का जनक सोम (यम्या) = युगलभूत (संयती) = [संगच्छमाने] मिलकर चलनेवाले, (साकंवृधा) = साथ-साथ वृद्धि को प्राप्त होनेवाले द्युलोक व पृथिवीलोक को, मस्तिष्क व शरीर को (विममे) = बनाता है । इन्हें (पयसा) = अपने रस से (पिन्वत्) = सींचता है, और इस प्रकार (अक्षिता) = न क्षीण हुए हुए (मही) = अत्यन्त महत्त्ववाले अपारे अद्भुत शक्तिवाले (रजसा) = द्यावापृथिवी को (विवेविदत्) = हमारे लिये प्राप्त कराता है। [२] (अभिव्रजन्) = शरीर में चारों ओर गति करता हुआ सोम (अक्षितम्) = न क्षीण होनेवाले (पाजः) = बल को आददे स्वीकार करता है। अर्थात् हमारे में यह अक्षीण बल को धारण करता है । सोम से हमारी शक्ति बनी रहती है और जीवन नष्ट नहीं होता ।

    भावार्थ

    भावार्थ - शरीर में सुरक्षित सोम मस्तिष्क व शरीर को अक्षीण शक्ति बनाये रखता है ।

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    विषय

    सभापति व प्रजाओं के प्रति शासक का कर्त्तव्य, उनको बढ़ाना।

    भावार्थ

    (यः) जो (मदः) अति आनन्दमय, हर्पयुक्त होकर (यम्या) यम नियम में बद्ध, (संयती) परस्पर मिलकर एक साथ प्रयत्न करने वाले (साकं वृधा) एक साथ मिलकर बढ़ने वाले, (अक्षिता) न क्षीण होने वाले, (मही) महान् शक्ति से युक्त पूज्य, (अपारे) अपार एवं अन्य पालक से रहित (रजसी) सूर्य पृथिवीवत् स्त्री पुरुषों सभा सभापति, शास्य शासक वर्गों को (पयसा पिबत्) अन्नवत् बल वीर्य से पूर्ण करता, उनको जल से वृक्षवत् सेचता, बढ़ाता है। वह (अभि व्रजत्) सर्वत्र जा २ कर विविध प्रकार से उनको सुख, ज्ञान और ऐश्वर्य प्राप्त कराता और (अक्षितं पाजः आददे) अक्षय बल, सामर्थ स्वयं भी धारण करता और प्रदान करता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वत्सप्रिर्भालन्दनं ऋषिः। पवमानः सोमो देवता ॥ छन्द:– १, ३, ६, ७ निचृज्जगती। २,४, ५, ९ जगती। ८ विराड् जगती। १० त्रिष्टुप्। दशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    The lord grants that soma joy of divinity which, going over and pervading the great and boundless heaven and earth, energises, vitalises and expands the inviolable twin sisters growing together in glory, with the milky spirit of divinity, and which, thus going forward unobstructed, holds the imperishable power and bliss of divinity.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    कर्मयोगी विद्वानाच्या उपदेशानेच माणसाला पृथ्वीलोक व द्युलोकाचे ज्ञान होते व त्याच्याच सदुपदेशाने अक्षय बल प्राप्त होते. ॥३॥

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