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अथर्ववेद के काण्ड - 10 के सूक्त 6 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 6/ मन्त्र 11
    ऋषिः - बृहस्पतिः देवता - फालमणिः, वनस्पतिः छन्दः - पथ्यापङ्क्तिः सूक्तम् - मणि बन्धन सूक्त
    49

    यमब॑ध्ना॒द्बृह॒स्पति॒र्वाता॑य म॒णिमा॒शवे॑। सो अ॑स्मै वा॒जिन॒मिद्दु॑हे॒ भूयो॑भूयः॒ श्वःश्व॒स्तेन॒ त्वं द्वि॑ष॒तो ज॑हि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यम् । अब॑ध्नात् । बृह॒स्पति॑: । वाता॑य । म॒णिम् । आ॒शवे॑ । स: । अ॒स्मै॒ । वा॒जिन॑म् । दु॒हे॒ । भूय॑:ऽभूय:। श्व:ऽश्व॑: । तेन॑ । त्वम् । द्वि॒ष॒त: । ज॒हि॒ ॥६.११॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यमबध्नाद्बृहस्पतिर्वाताय मणिमाशवे। सो अस्मै वाजिनमिद्दुहे भूयोभूयः श्वःश्वस्तेन त्वं द्विषतो जहि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यम् । अबध्नात् । बृहस्पति: । वाताय । मणिम् । आशवे । स: । अस्मै । वाजिनम् । दुहे । भूय:ऽभूय:। श्व:ऽश्व: । तेन । त्वम् । द्विषत: । जहि ॥६.११॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 6; मन्त्र » 11
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    सब कामनाओं की सिद्धि का उपदेश।

    पदार्थ

    (यम्) जिस (मणिम्) मणि [प्रशंसनीय वैदिक नियम] को (बृहस्पतिः) बृहस्पति [बड़े ब्रह्माण्डों के स्वामी परमेश्वर] ने (वाताय) गमनशील (आशवे) भोक्ता [प्राणी] के लिये (अबध्नात्) बाँधा है। (सः) वह [वैदिक नियम] (अस्मै) इस [प्राणी] के लिये (वाजिनम्) बल (भूयोभूयः) बहुत-बहुत.... म० ६ ॥११॥

    भावार्थ

    अनुभवी विद्वानों के समान पुरुषार्थी मनुष्य वैदिक नियम से यथावत् बल बढ़ा कर विघ्नों को हटावे ॥११॥

    टिप्पणी

    ११−(वाताय) अ० १।११।६। वा गतौ-तन्। गमनशीलाय। उद्योगिने (आशवे) कृवापा०। उ० १।१। अश भोजने-उण्। भोक्त्रे प्राणिने (वाजिनम्) महेरिनण् च। उ० २।५६। वज गतौ-इनण्। बलम्। अन्यत् पूर्ववत् ॥

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    विषय

    वाजिनम् [Strength]

    पदार्थ

    १. (ब्रहस्पतिः) = ज्ञानी पुरुष (यं मणिम्) = जिस वीर्यरूप मणि को (अबध्नात्) = अपने शरीर में ही बद्ध करता है, जिससे (आशवे) = शीघ्रता से कार्यों में व्याप्त हो सके तथा (वाताय) = गति द्वारा सब बुराइयों का हिंसन हो जाए [वा गतिगन्धनयोः]।२. (स:) = वह मणि (अस्मै) = इस बृहस्पति के लिए (भूयः भूय:) = अधिकाधिक (श्वःश्व:) = अगले-अगले दिन (वाजिनं दुहे) = वीरता [Heroism, strength] को, शक्ति को प्रपूरित करती है। (तेन) = उस वीरता के द्वारा (त्वम्) = तू (द्विषत:) = अप्रीतिकर रोगों व वासनारूप शत्रुओं को (जहि) = नष्ट कर।

    भावार्थ

    क्रियाशील बनकर वीर्यरक्षण द्वारा शक्तिशाली होते हुए हम शत्रुओं को शीर्ण कर दें|

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    भाषार्थ

    (बृहस्पतिः) बृहद्-ब्रह्माण्ड-के पति परमेश्वर ने (आशवे, वाताय) शीघ्रगति वाली वायु के निर्माण के लिये, (यम्, मणिम्) जिस मणि को (अबध्नात्) बान्धा। (सः) उस वायु ने (अस्मै) इस बृहस्पति के लिये (वाजिनम्) बल को (दुहे) दोहा, (भूयोभूयः) बार-बार या अधिकाधिक रूप में, (श्वः श्वः) आए दिन-प्रति-दिन, (तेन) उस वात द्वारा (त्वम्) हे परमेश्वर ! तू (द्विषतः) रोग-शत्रुओं का (जहि) हनन कर१।

    टिप्पणी

    [वाताय२=वातं निर्मातुम्; तमुन्नर्थे चतुर्थी (अष्टा० २।३।१४)। अवध्नात् = बान्धा, वायु के निर्माण का निश्चय किया, ईक्षण किया। वात अर्थात् वायु आशु है, शीघ्रगति वाली है। इस ने निज शीघ्रता द्वारा बृहस्पति में शीघ्रगति का बल प्रदान किया, कार्यरूपी वायु ने निज कर्त्ता-परमेश्वर के शोधकार्यकतृत्व को सूचित किया। इस शीघ्रता को यजुर्वेद में "मनसो जवीयः" (३१।४) द्वारा प्रदर्शित किया है। वाजिनम्=बलम्। यथा "वाजिनां वाजिनानि" (अथर्व० ३।१९।६)। वाजिनानि = बलानि (सायण)। परमेश्वर, वात द्वारा, रोगरूपी शत्रुओं का हनन करता है। यथा -‌ आ वात वाहि भेषजं वि वात वाहि यद्रपः। त्वं हि विश्वभेषज देवानां दूत ईयसे ॥ वात को भेषज और विश्वभेषज कहा है। यह "रपः” पापरूपी रोगों को दूर करता, और इन्द्रिय-देवों के रोग-शत्रुओं का दूत है; उपतापी है। दूतः=टुदु उपतापे (स्वादिः)। अथवा दूङ् परितापे (दिवादिः)। प्राणापान कि गति द्वारा इन्द्रियों पर शरीर के मल दूर होते हैं, और ये पुष्ट होते हैं।] [१. मन्त्र ११ से ३५ में खदिरम् और फालम् शब्दों का प्रयोग नहीं हुआ, केवल मन्त्र ३३ में "फालेन कृष्टे" शब्दों का प्रयोग हुआ है। इससे प्रतीत होता है कि इन मन्त्रों में "मणि" द्वारा कृष्यन्न अभिप्रेत नहीं, अपितु "मणि" द्वारा "उत्कृष्ट-तत्व" अर्थ ही अभिप्रेत है। अतः एतदनुसार ही इन मन्त्रों के अर्थ किये हैं। २. भूत-भौतिक जगत् के निर्माण में मन्त्र ११ से १७ तक वात का वर्णन है। कारण यह कि "तस्माद्वा एतस्मादात्मनः आकाशः सम्भूतः, आकाशाद् वायुः, वायोरग्निः, अग्नेरापः, अद्भ्यः पृथिवी, पृथिव्या ओषधयः, ओषधीभ्योऽन्नम्, अन्नाद्रेतः, रेतसः पुरुषः (तै० उप०) के अनुसार सूक्ष्मतत्त्व से उत्तरोत्तर स्थूलतत्त्व की उत्पत्ति दर्शाई गई है। आकाश अति सूक्ष्म है, और कईयों के मत में नित्य है। इसलिये भूत भौतिक जगत् में मूल कारण वायु या वात है। इसलिये वायु या वात की उत्पत्ति दर्शाई गई है। आकाश= आ+ काश् (दीप्तौ)। अतः प्रतीत होता है कि आकाश है प्रकाश का माध्यम। पश्चात् काल में आकाश को शब्द का माध्यम माना गया प्रतीत होता है। सम्भवतः आकाश पाश्चात्य वैज्ञानिकों का Ether है। ETHER= A subtle medium supposed to fill all space. Ether= Aithein (ग्रीक) = To shine, To light up, ञिइन्घी दीप्तौ।]

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    विषय

    शिरोमणि पुरुषों का वर्णन।

    भावार्थ

    (बृहस्पतिः) वेदज्ञ विद्वान्, बृहस्पति के समान राष्ट्र का महामन्त्री (यम्) जिस (मणिम्) पुरुष-रत्न को (आशवे) अति शीघ्रकारी (वाताय) प्रचण्ड वात के समान तीव्र वेग के कार्य सम्पादन करने के लिये (अबध्नात्) कार्य पर वेतन द्वारा नियुक्त करता है (सः) वह (अस्मै) राजा के लिये (भूयो भूयः) अधिकाधिक (वाजिनम्) वेगवान् अश्व आदि यानों और रथों को (दुहे) तैय्यार कर देता है। (तेन श्वः श्वः द्विषतः जहि) हे राजन् ! ऐसे नररत्न के बल पर तू भविष्य में बराबर शत्रुओं का नाश कर। राजा वेगवान् रथों के उत्पन्न करने हारे शिल्पवेत्ता विद्वानों को नियुक्त करे। वे राज्य में सहस्रों वेगवान् रथों को उत्पन्न करें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    बृहस्पतिर्ऋषिः। फालमणिस्त वनस्पतिर्देवता। १, ४, २१ गायत्र्याः, ३ आप्या, ५ षट्पदा जगती, ६ सप्तपदा विराट् शक्वरी, ७-९ त्र्यवसाना अष्टपदा अष्टयः, १० नवपदा धृतिः, ११, २३-२७ पथ्यापंक्तिः, १२-१७ त्र्यवसाना षट्पदाः शक्वर्यः, २० पथ्यापंक्तिः, ३१ त्र्यवसाना षट्पदा जगती, ३५ पञ्चपदा अनुष्टुब् गर्भा जगती, २, १८, १९, २१, २२, २८-३०, ३२-३४ अनुष्टुभः। पञ्चत्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Manibandhana

    Meaning

    That jewel-mani, divine thought, which Brhaspati, lord creator of the expansive universe, created and bore by himself for the origination of dynamic energy, that thought and energy set in motion the speed of evolution for this same lord, set it in motion more and ever more, moment by moment of chronological time. O man, as part of the evolution, eliminate the forces that hate, oppose and negate the process of evolution.

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    Translation

    The blessing, which the Lord supreme has bestowed upon the fast-moving wind (vata), that, verily, yields speed (vājinam) to him, more and more, morrow to morrow. With that may you destroy the malicious enemies.

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    Translation

    That citron medicine which the master of Vedic speech binds on the man of swift activity, gives quickness and energy to him frequently and every day. By this, O man! Destroy diseases which hurt you.

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    Translation

    The laudable Vedic Law, which God, the Lord of mighty worlds hath created for an enterprising person, grants him prowess again and again, from morn to morn. With this subdue thine enemies.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ११−(वाताय) अ० १।११।६। वा गतौ-तन्। गमनशीलाय। उद्योगिने (आशवे) कृवापा०। उ० १।१। अश भोजने-उण्। भोक्त्रे प्राणिने (वाजिनम्) महेरिनण् च। उ० २।५६। वज गतौ-इनण्। बलम्। अन्यत् पूर्ववत् ॥

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