अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 6/ मन्त्र 16
ऋषिः - बृहस्पतिः
देवता - फालमणिः, वनस्पतिः
छन्दः - त्र्यवसाना षट्पदा त्रिष्टुब्गर्भा जगती
सूक्तम् - मणि बन्धन सूक्त
54
यमब॑ध्ना॒द्बृह॒स्पति॒र्वाता॑य म॒णिमा॒शवे॑। तं दे॒वा बिभ्र॑तो म॒णिं सर्वां॑ल्लो॒कान्यु॒धाज॑यन्। स ए॑भ्यो॒ जिति॒मिद्दु॑हे॒ भूयो॑भूयः॒ श्वःश्व॒स्तेन॒ त्वं द्वि॑ष॒तो ज॑हि ॥
स्वर सहित पद पाठयम् । अब॑ध्नात् । बृह॒स्पति॑: । वाता॑य । म॒णिम् । आ॒शवे॑ । तम् । देवा: । बिभ्र॑त: । म॒णिम् । सर्वा॑न् । लो॒कान् । यु॒धा । अ॒ज॒य॒न् । स: । ए॒भ्य॒: । जिति॑म् । इत् । दु॒हे॒ । भूय॑:ऽभूय:। श्व:ऽश्व॑: । तेन॑ । त्वम् । द्वि॒ष॒त: । ज॒हि॒ ॥६.१६॥
स्वर रहित मन्त्र
यमबध्नाद्बृहस्पतिर्वाताय मणिमाशवे। तं देवा बिभ्रतो मणिं सर्वांल्लोकान्युधाजयन्। स एभ्यो जितिमिद्दुहे भूयोभूयः श्वःश्वस्तेन त्वं द्विषतो जहि ॥
स्वर रहित पद पाठयम् । अबध्नात् । बृहस्पति: । वाताय । मणिम् । आशवे । तम् । देवा: । बिभ्रत: । मणिम् । सर्वान् । लोकान् । युधा । अजयन् । स: । एभ्य: । जितिम् । इत् । दुहे । भूय:ऽभूय:। श्व:ऽश्व: । तेन । त्वम् । द्विषत: । जहि ॥६.१६॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
सब कामनाओं की सिद्धि का उपदेश।
पदार्थ
(यम्) जिस (मणिम्) मणि [प्रशंसनीय वैदिक नियम] को... म० ११ (अबध्नात्) बाँधा है। (तम्) उस (मणिम्) मणि [प्रशंसनीय वैदिक नियम] को (बिभ्रतः) धारण करते हुए (देवाः) विजयी लोगों ने (सर्वान् लोकान्) सब लोकों को (युधा) युद्ध से (अजयन्) जीता है। (सः) वह [वैदिक नियम] (एभ्यः) इन [विजयी लोगों] के लिये (इत्) ही (जितिम्) जीत (भूयोभूयः) बहुत-बहुत.... म० ॥१६॥
भावार्थ
जिस प्रकार पुरुषार्थी लोगों ने ईश्वरनियम पर चलकर विजय पाया है, वैसे ही सब मनुष्य वेदविद्या द्वारा निरालसी होकर दुःखों से अलग होवें ॥१६॥
टिप्पणी
१६−(देवाः) विजिगीषवः पुरुषाः (बिभ्रतः) धारयन्तः (सर्वान् लोकान्) (युधा) युद्धेन (अजयन्) जितवन्तः (एभ्यः) देवेभ्यः (जितिम्) जयम्। अन्यत् पूर्ववत् ॥
विषय
जितिम्
पदार्थ
१. (बृहस्पतिः यं मणिम् अबध्नात्) = [मन्त्र ११ में द्रष्टव्य है] २. (मणिम्) = उस वीर्यमणि को (विभ्रत:) = धारण करते हुए (देवा:) = देववृत्ति के व्यक्ति (युधा) = युद्ध के द्वारा (सर्वान् लोकान्) = 'पृथिवी, अन्तरिक्ष व धुलोक', अर्थात् शरीर, हृदय व मस्तिष्करूप सभी लोकों को (अजयन्) = जीतते हैं। ये इस मणि के द्वारा शरीर को स्वस्थ, मन को निर्मल व मस्तिष्क को दीस बनाते हैं। (स:) = वह मणि (एभ्यः) = इनके लिए (भूय:भूयः) = अधिकाधिक (श्वःश्व:) = अगले-अगले दिन (इत्) = निश्चय से (जितिम् दुहे) = विजय को प्रपूरित करती है। (तेन) = उस मणि के द्वारा (त्वम्) = तू (द्विषत:) = अप्रीतिकर शत्रुओं को (जहि) = विनष्ट कर।
भावार्थ
देववृत्ति के बनकर वीर्यमणि का रक्षण करने पर हम इसके द्वारा विजय-ही विजय प्राप्त करते हुए 'स्वस्थ, निर्मल व दीप्स' बनेंगे।
भाषार्थ
(बृहस्पतिः) बृहत् ब्रह्माण्ड के पति परमेश्वर ने (आशवे वाताय) शीघ्रगति वाली वायु के निर्माण के लिये (यम् मणिम्) जिस कामनारूपी मणि को (अबध्नात्) बान्धा, (तम् मणिम्) उस कामनारूपी मणि को (देवाः) विजिगीषुओं ने (बिभ्रतः) धारण करते हुए (युधा) युद्ध द्वारा (सर्वान् लोकान्) सब लोकों को (अजयन्) जीत लिया। (सः) उस बृहस्पति ने (एभ्यः) इन विजिगीषुओं के लिये या इन विजिगीषुओं से, (जितिम् इत्) विजय को (दुहे) दोहा, (भूयोभूयः) बार-बार या अधिकाधिक रूप में (श्वः श्वः), आए दिन-प्रतिदिन (तेन) उस युद्ध द्वारा हे बृहस्पति ! (त्वम्) तू (द्विषतः) हमारे द्वेषी शत्रुओं का (जहि) हनन कर।
टिप्पणी
[देवाः = विजिगीषु सेनाधिकारी वर्ग। “दिवु क्रीडाविजिगीषा" आदि (दिवादिः)। “देव" द्वारा विजिगीषु भी अभिप्रेत होते हैं, यथा 'दिवसेनानामभिभञ्जतीनाम्" में देव का अर्थ विजिगीषु है। उनकी सेनाओं को देवसेनाः कहा है। देखो मन्त्र ८ की व्याख्या। "सब लोक" का अभिप्राय हैं "सब पार्थिव देश"। द्विषतः= का अभिप्राय यह है कि परमेश्वर हमारे ऐहिक तथा पुराकृत कर्मों के अनुसार हमें जय या पराजय प्रदान करता है। परमेश्वर ही कर्मफलप्रदाता है। जय या पराजय भी कर्मफल ही है। अतः इनकी प्राप्ति भी परमेश्वराधीन ही है। मन्त्र में आधिदैविक दृष्टि में प्रकाश (देव) और अन्धकार (असुर), या सूर्य देव और मेघ असुर भी अभिप्रेत हैं। तथा आध्यात्मिक दृष्टि में देवासुर संग्राम भी अभिप्रेत है]।
विषय
शिरोमणि पुरुषों का वर्णन।
भावार्थ
(यम् अबध्नात्० इत्यादि) पूर्ववत्। (तं मणिम्) उस नररत्न पुरुष को (बिभ्रतः) अपने बीच धारण करते हुए (देवाः) विद्वान् पुरुष (युधा) अपने युद्ध करने के सामर्थ्य से (सर्वान् लोकान्) समस्त लाकों को (अजयन्) विजय कर लेते हैं। (सः) वह नरमणि ही (एभ्यः) उन देव विद्वान् पुरुषों के लिये (भूयः भूयः) अधिकाधिक (जितिम् इत् दुहे) विजयों को करता है। ‘तेन श्वः श्वः०’ इत्यादि पूर्ववत्।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
बृहस्पतिर्ऋषिः। फालमणिस्त वनस्पतिर्देवता। १, ४, २१ गायत्र्याः, ३ आप्या, ५ षट्पदा जगती, ६ सप्तपदा विराट् शक्वरी, ७-९ त्र्यवसाना अष्टपदा अष्टयः, १० नवपदा धृतिः, ११, २३-२७ पथ्यापंक्तिः, १२-१७ त्र्यवसाना षट्पदाः शक्वर्यः, २० पथ्यापंक्तिः, ३१ त्र्यवसाना षट्पदा जगती, ३५ पञ्चपदा अनुष्टुब् गर्भा जगती, २, १८, १९, २१, २२, २८-३०, ३२-३४ अनुष्टुभः। पञ्चत्रिंशदृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Manibandhana
Meaning
That jewel-mani of divine thought which Brhaspati set in motion for the origination of dynamic energy for the evolution of existence, that same energy, the Devas, divine forces of nature and noble people of light, knowledge and generosity, received and bore, and, with their struggle for evolution and progress, won all the regions of the world. That same energy and the struggle brought and brings victory more and ever more, day by day. O man, by the same energy and the same struggle, throw off the forces of hate and enmity which negate and obstruct the struggle for progress and evolution.
Translation
The blessing; which the Lord supreme has beštowed upon the fast-moving wind, putting on that blessing, the enlightened ones. have conquered all the worlds by war (yudhā). That, verily, yields, victory to them, more and more, morrow to morrow. With that may you destroy the malicious enemies.
Translation
That citron medicine which the master of the Vedic speech binds on the man of swift activity and wearing that medicine the man of might and dexterity win all the regions by battle, gives for this man the victory frequently and every day. This, O man! destroy diseases which hurt you.
Translation
The laudable Vedic Law, which God, the Lord of mighty worlds hath created for an enterprising person, is accepted by victory-loving people, wherewith they conquer in battle all the worlds. This law grants victory for them again and again, from morn to morn. With this subdue thine enemies.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१६−(देवाः) विजिगीषवः पुरुषाः (बिभ्रतः) धारयन्तः (सर्वान् लोकान्) (युधा) युद्धेन (अजयन्) जितवन्तः (एभ्यः) देवेभ्यः (जितिम्) जयम्। अन्यत् पूर्ववत् ॥
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