अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 6/ मन्त्र 9
ऋषिः - बृहस्पतिः
देवता - फालमणिः, वनस्पतिः
छन्दः - त्र्यवसाना षट्पदा शक्वरी
सूक्तम् - मणि बन्धन सूक्त
45
यमब॑ध्ना॒द्बृह॒स्पति॑र्म॒णिं फालं॑ घृत॒श्चुत॑मु॒ग्रं ख॑दि॒रमोज॑से। तं सूर्यः॒ प्रत्य॑मुञ्चत॒ तेने॒मा अ॑जय॒द्दिशः॑। सो अ॑स्मै॒ भूति॒मिद्दु॑हे॒ भूयो॑भूयः॒ श्वःश्व॒स्तेन॒ त्वं द्वि॑ष॒तो ज॑हि ॥
स्वर सहित पद पाठयम् । अब॑ध्नात् । बृह॒स्पति॑: । म॒णिम् । फाल॑म् । घृ॒त॒ऽश्चुत॑म् । उ॒ग्रम् । ख॒दि॒रम् । ओज॑से । तम् । सूर्य॑: । प्रति॑ । अ॒मु॒ञ्च॒त॒ । तेन॑ । इ॒मा: । अ॒ज॒य॒त् । दिश॑: । स: । अ॒स्मै॒ । भूति॑म् । इत् । दु॒हे॒ । भूय॑:ऽभूय:। श्व:ऽश्व॑: । तेन॑ । त्वम् । द्वि॒ष॒त: । ज॒हि॒ ॥६.९॥
स्वर रहित मन्त्र
यमबध्नाद्बृहस्पतिर्मणिं फालं घृतश्चुतमुग्रं खदिरमोजसे। तं सूर्यः प्रत्यमुञ्चत तेनेमा अजयद्दिशः। सो अस्मै भूतिमिद्दुहे भूयोभूयः श्वःश्वस्तेन त्वं द्विषतो जहि ॥
स्वर रहित पद पाठयम् । अबध्नात् । बृहस्पति: । मणिम् । फालम् । घृतऽश्चुतम् । उग्रम् । खदिरम् । ओजसे । तम् । सूर्य: । प्रति । अमुञ्चत । तेन । इमा: । अजयत् । दिश: । स: । अस्मै । भूतिम् । इत् । दुहे । भूय:ऽभूय:। श्व:ऽश्व: । तेन । त्वम् । द्विषत: । जहि ॥६.९॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
सब कामनाओं की सिद्धि का उपदेश।
पदार्थ
(बृहस्पतिः) बृहस्पति [बड़े ब्रह्माण्डों के स्वामी परमेश्वर] ने (यम्) जिस.... म० ६। (तम्) उस [वैदिक नियम] को (सूर्यः) सूर्य [सूर्यसमान राज्य चलानेवाले वीर] ने (प्रति अमुञ्चत) स्वीकार किया है, (तेन) उस [वैदिक नियम] से (इमाः दिशः) इन दिशाओं को (अजयत्) जीता है। (सः) वह [वैदिक नियम] (अस्मै) इस [वीर पुरुष] के लिये (इत्) ही (भूतिम्) विभूति [सम्पत्ति] (भूयोभूयः) बहुत-बहुत.... म० ६ ॥९॥
भावार्थ
जैसे सूर्य अपने परिधि के लोकों को आकर्षण द्वारा मर्यादा में चलाता है, उसी प्रकार नीतिनिपुण राजा परमेश्वरनियम से प्रजा का सुख बढ़ा कर अपना अभ्युदय करे ॥९॥
टिप्पणी
९−(सूर्यः) सूर्यवत्सविता राज्यप्रेरको वीरः (इमाः) दृश्यमानाः (अजयत्) वशीकृतवान् (दिशः) पूर्वादयः (भूतिम्) विभूतिम्। सम्पत्तिम्। अन्यत् पूर्ववत् ॥
विषय
सूर्य के लिए भूति
पदार्थ
१. (बृहस्पतिः खदिरम् ओजसे) = [देखें मन्त्र छह में]२. (तम्) = उस वीर्यमणि को (सूर्य:) = सूर्यवत् निरन्तर गतिशील कर्तव्यकर्मपरायण मनुष्य (प्रत्यमुञ्चत) = कवच के रूप में धारण करता है। (तेन) = उससे वह (इमा दिश: अजयत्) = इन दिशाओं का विजय करता है। (स:) = वह मणि (अस्मै) = इसके लिए (भूयः भूयः) = अधिकाधिक (श्वःश्वः) = अगले-अगले दिन (इत्) = निश्चय से (भूतिम्) = 'स्वास्थ्य, नैर्मल्य व ज्ञान' के ऐश्वर्य को (दुहे) = प्रपूरित करती है। (तेन) = उस मणि के द्वारा (त्वम्) = तु (द्विषत:) = अप्रीतिकर शत्रुओं को (जहि) = विनष्ट कर डाल।
भावार्थ
वीर्यमणि को रक्षित करता हुआ कर्त्तव्यकर्मपरायण पुरुष भूति को प्राप्त करता है तथा अप्रीतिकर शत्रुओं का नाश कर देता है।
भाषार्थ
(खदिरम्) खैर वृक्ष के काष्ठरूप, या उस काष्ठ से निर्मित (फालम्) हल के फाल द्वारा उत्पन्न, (घृतश्चुतम्) घृतस्रावी, (उग्रम्) ऊग्ररूप (यम्) जिस (मणिम्) कृष्यन्नरूप रत्न को (बृहस्पतिः) परमेश्वर ने (अबध्नात्) बान्धा है, उस के उत्पादन रूपी व्रत को धारण किया है, (ओजसे) ताकि प्रजाओं को ओज प्राप्त हो। (तम्) मणि=उस कृष्यन्न के उत्पन्न व्रत को (सूर्यः) सूर्य ने भी (प्रत्यमुञ्चत) धारण किया है,बान्धा है। (तेन) उस सूर्य ने (इमाः दिशः) इन दिशाओं पर (अजयत्) विजय पाई है। (सः) उस सूर्य ने (अस्मै) इस परमेश्वर के लिये (भूतिम्, इत्) विभूति को (दुहे) दोहा है (भूयोभूयः) बार-बार या अधिकाधिक रूप में, (श्वः श्वः) आए दिन-प्रति-दिन। (तेन) उस सूर्य द्वारा (त्वम्) हे परमेश्वर तू (द्विषतः) हमारे रोग-शत्रुओं का हनन कर।
टिप्पणी
["तेन" द्वारा भूति का निर्देश नहीं। "तेन" पद पुंलिङ्ग है, और भूति स्त्रीलिङ्ग है। अतः “तेन" द्वारा सूर्य का निर्देश हुआ है। "ओजसे" द्वारा कृष्यन्न के सेवन से प्राप्तः ओज प्रजाओं के लिये है, न कि परमेश्वर के लिये। फालम् = फालात्-जात कृष्यन्न (मन्त्र २)। दिशः= दिशाओं का ज्ञान सूर्य के उदय तथा अस्तगत होने द्वारा होता है, अतः मानो सूर्य ने दिशाओं पर विजय पाई हुई है। भूतिम=सूर्य विभूति-सम्पन्न है। परमेश्वर द्वारा सूर्य उत्पन्न हुआ। अतः कार्यरूपी सूर्य, निज कर्ता की विभूति का परिचायक है। सूर्य रोगनिवारक है। यथा "सं ते शीर्ष्णः कपालानि हृदयस्य च यो विधुः।उद्यन्नादित्यः रश्मिभिः शीर्ष्णो रोगमनीनशोऽङ्गभेदमशीशमः" ॥ (अथर्व० ९।१३ (८)।२२)। तथा "अनु सूर्यमुदयता हृद्द्द्योतो हरिमा च ते" (अथर्व० १।२२।१)। मन्त्र में हृदय की जलन और शरीर के हरेपन के विनाश में सूर्य को कारण कहा है। तथा "उद्यन्नादित्यः क्रिमीन् हन्तु निम्लोचन् हन्तु रश्मिभिः। ये अन्तः क्रिमयो गवि" (अथर्व० २।३२।१)। उदित तथा अस्त होते हुए आदित्य की रश्मियां लाल होती हैं, इन लाल रश्मियों में रोगविनाश करने की अधिक शक्ति सम्भव प्रतीत होती है। क्रिमयः = विविध प्रकार के germs (रोग कीटाणु)। गवि=पृथिवी तथा रश्मियां। "गावः रश्मिनाम" (निघं० १।२)। वक्तव्य— याज्ञिक सम्प्रदायानुसार खदिर काष्ठ के फाल के विकाररूपी मणि को बांधने का वर्णन है। यथा "खदिरकाष्ठफालविकार मणि शत्रुनाशाय सर्वकामावाप्तये च बध्नाति" (अथर्व० १०।६ के विनियोग में सायण)। पाश्चात्य आदि वैदिक विद्वान् इस मणि को "Amulet” अर्थात् जादू टोना रूप मानते हैं। क्या चन्द्रमा (मन्त्र १०), सविता (१३) आपः (१४), ऋतु आर्तव, संवत्सर (१८), अन्तर्देश, प्रदिशः (१९) आदि जड़ पदार्थ भी इस मणि को बान्धते हैं। अतः मणिबन्धन का अर्थ जो इस सूक्त के भाष्य में किया गया है, वही समुचित प्रतीत होता है]
विषय
शिरोमणि पुरुषों का वर्णन।
भावार्थ
(यम् अबध्नात्० इत्यादि) पूर्ववत्। (तं) उस शिरोमणि पुरुष को (सूर्यः) सूर्य के समान प्रखर तेजस्वी राजा (प्रत्यमुञ्चत्) स्वयं धारण करता है (तेन इमा दिशः अजयत्) उसके बल पर इन समस्त दिशाओं पर जय प्राप्त करता है। (सः) वह शिरोमणि पुरुष (भूतिम् इत्) भूति, राज्य और राष्ट्र की सम्पत्ति को ही (भूयः भूयः दुहे) बराबर अधिकाधिक बढ़ाया करता है। (तेन श्वः श्वः द्विषतः जहि) हे राजन् ! उसके बल पर ही तू भविष्य में सदा द्वेष करने हारे शत्रुओं को मारने में समर्थ हो। अर्थात् राजा देशान्तर विजय के कार्य के लिये भी उत्तम उत्तम पुरुषों को वेतन पर नियुक्त करे। वे उसकी राष्ट्र सम्पति को बढ़ावें और उनके बल पर राजा शत्रुओं को दण्ड दे।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
बृहस्पतिर्ऋषिः। फालमणिस्त वनस्पतिर्देवता। १, ४, २१ गायत्र्याः, ३ आप्या, ५ षट्पदा जगती, ६ सप्तपदा विराट् शक्वरी, ७-९ त्र्यवसाना अष्टपदा अष्टयः, १० नवपदा धृतिः, ११, २३-२७ पथ्यापंक्तिः, १२-१७ त्र्यवसाना षट्पदाः शक्वर्यः, २० पथ्यापंक्तिः, ३१ त्र्यवसाना षट्पदा जगती, ३५ पञ्चपदा अनुष्टुब् गर्भा जगती, २, १८, १९, २१, २२, २८-३०, ३२-३४ अनुष्टुभः। पञ्चत्रिंशदृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Manibandhana
Meaning
That jewel of abundance, powerful and replete with ghrta, born of the plough share of khadira wood, which Brhaspati, cosmic high priest, tied for the sake of strength and splendour, the sun received and wore and thereby conquered all the directions of space. May that jewel create and bring in for the recipient superabundance of prosperity and light again and again, more and more, day by day. O man, with that jewel of light and abundance, destroy the forces that hate and destroy.
Translation
The formidable khadira blessing, obtained from plough-share, dripping purified butter, which the Lord supreme has bestowed for vigour, that (blessing) the Sun (Sūrya) has put on; with that he has conquered these quarters(disah). That, verily, yields purified butter to him, more and more, morrow to morrow. With that, may you destroy the malicious enemies.
Translation
O man! through that citron medicine you destroy your diseases which hurt you. This is that citron-plant which the man of refulgence and active acumen gladly accepts and thereby conquer the regions of the space and which the learned physician use to bind on the man like powerful ghee-sprinkled Khadir, Acacia catechu for gaining strength and vigor. This plant gives to men ability frequently from morning to morning.
Translation
God, the Lord of mighty worlds hath created for strength, this laudable Vedic Law, the giver of reward, the rainer of lustre, mighty, full of eternal truths. A king with nice administrative capacity hath accepted it. With its help he hath conquered all the regions. This yields him majesty again and again, from morn to morn. With this subdue thine enemies.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
९−(सूर्यः) सूर्यवत्सविता राज्यप्रेरको वीरः (इमाः) दृश्यमानाः (अजयत्) वशीकृतवान् (दिशः) पूर्वादयः (भूतिम्) विभूतिम्। सम्पत्तिम्। अन्यत् पूर्ववत् ॥
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