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अथर्ववेद के काण्ड - 10 के सूक्त 6 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 6/ मन्त्र 8
    ऋषिः - बृहस्पतिः देवता - फालमणिः, वनस्पतिः छन्दः - त्र्यवसाना षट्पदा शक्वरी सूक्तम् - मणि बन्धन सूक्त
    34

    यमब॑ध्ना॒द्बृह॒स्पति॑र्म॒णिं फालं॑ घृत॒श्चुत॑मु॒ग्रं ख॑दि॒रमोज॑से। तं सोमः॒ प्रत्य॑मुञ्चत म॒हे श्रोत्रा॑य॒ चक्ष॑से। सो अ॑स्मै॒ वर्च॒ इद्दु॑हे॒ भूयो॑भूयः॒ श्वःश्व॒स्तेन॒ त्वं द्वि॑ष॒तो ज॑हि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यम् । अब॑ध्नात् । बृह॒स्पति॑: । म॒णिम् । फाल॑म् । घृ॒त॒ऽश्चुत॑म् । उ॒ग्रम् । ख॒दि॒रम् । ओज॑से । तम् । सोम॑: । प्रति॑ । अ॒मु॒ञ्च॒त॒ । म॒हे । श्रोत्रा॑य । चक्ष॑से । स: । अ॒स्मै॒ । वर्च॑: । इत् । दु॒हे॒ । भूय॑:ऽभूय:। श्व:ऽश्व॑: । तेन॑ । त्वम् । द्वि॒ष॒त: । ज॒हि॒ ॥६.८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यमबध्नाद्बृहस्पतिर्मणिं फालं घृतश्चुतमुग्रं खदिरमोजसे। तं सोमः प्रत्यमुञ्चत महे श्रोत्राय चक्षसे। सो अस्मै वर्च इद्दुहे भूयोभूयः श्वःश्वस्तेन त्वं द्विषतो जहि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यम् । अबध्नात् । बृहस्पति: । मणिम् । फालम् । घृतऽश्चुतम् । उग्रम् । खदिरम् । ओजसे । तम् । सोम: । प्रति । अमुञ्चत । महे । श्रोत्राय । चक्षसे । स: । अस्मै । वर्च: । इत् । दुहे । भूय:ऽभूय:। श्व:ऽश्व: । तेन । त्वम् । द्विषत: । जहि ॥६.८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 6; मन्त्र » 8
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    सब कामनाओं की सिद्धि का उपदेश।

    पदार्थ

    (बृहस्पतिः) बृहस्पति [बड़े ब्रह्माण्डों के स्वामी परमेश्वर] ने (यम्) जिस.... म० ६। (तम्) उस [वैदिक नियम] को (सोमः) सोम [सोमरस, अन्न आदि अमृतसमान सुख उत्पन्न करनेवाले पुरुष] ने (महे) महत्त्व के लिये, (श्रोत्राय) श्रवण सामर्थ्य के लिये और (चक्षसे) दर्शन सामर्थ्य के लिये (प्रति अमुञ्चत) स्वीकार किया है। (सः) वह [वैदिक नियम] (अस्मै) इस [पुरुष] के लिये (इत्) ही (वर्चः) तेज (भूयोभूयः) बहुत-बहुत.... म० ६ ॥८॥

    भावार्थ

    जिस परमेश्वर के नियम से अन्न आदि अमृत पदार्थ शरीर को पुष्ट कर इन्द्रियों को स्वस्थ रखते हैं, उसी परमात्मा के ज्ञान से पूर्वजों के समान दूरदर्शी होकर सब लोग सुखवृद्धि करें ॥८॥

    टिप्पणी

    ८−(सोमः) सोमरसः। अन्नाद्यमृतपदार्थः (महे) मह पूजायाम्-क्विप् महत्त्वाय (श्रोत्राय) श्रवणसामर्थ्याय (चक्षसे) दर्शनसामर्थ्याय (वर्चः) तेजः। अन्यत् पूर्ववत् ॥

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    विषय

    सोम के लिए वर्चस्

    पदार्थ

    ९. (ओजसे) = ओजस्विता के लिए (बृहस्पतिः खदिरम्) = [देखें मन्त्र छह में] २. (तम्) = उस मणि को (सोमः) = शान्तस्वभाववाला व्यक्ति (प्रत्यमुञ्चत) = कवच के रूप में धारण करता है। जैसे प्रगतिशीलता व जितेन्द्रियता वीर्यरक्षण में सहायक होती हैं, इसी प्रकार शान्तस्वभाव भी वीर्यरक्षण में साधन होता है। यह सोम इसे (महे) = महत्त्व के लिए, (श्रोत्राय) = श्रवणशक्ति के लिए व (चक्षसे) = दृष्टिशक्ति के लिए धारण करता है। (सः) = वह मणि (अस्मै) = इसके लिए (इत्) = निश्चय से (वर्च:) = वर्चस् को-प्राणशक्ति को (भूयः भूयः) = अधिकाधिक (श्वः श्व:) = अगले-अगले दिन दुहे प्रपूरित करती है। (तेन) = उससे (त्वम्) = तू (द्विषतः जहि) = अप्रीतिकर शत्रुओं को नष्ट करनेवाला बन।

    भावार्थ

    सोम [शान्त स्वभाव] और वीर्य-रक्षण द्वारा वर्चस्वी बनकर हम अप्रीतिकर शत्रुओं को नष्ट कर डालें।

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    भाषार्थ

    (यम् अबध्नात्•••••ओजसे) अर्थ पूर्ववत् (मन्त्र ६)(तम्) उसे (सोमः) सेनानायक ने भी (प्रत्यमुञ्चत) धारण किया है (महे श्रोत्राय चक्षसे) महती श्रवणशक्ति के लिये, तथा महती दृष्टि के लिये। (सः) वह (सोमः) सेनानायक (अस्मै) इस बृहस्पति के लिये (वर्चः) दीप्ति या कान्ति (इद्) ही (दुहे) दोहता है, प्रदान करता है, (भूयोभूयः) वार-वार या अधिकाधिक रूप में, (श्वः श्वः) आए दिन-प्रति-दिन (तेन) उस वर्चस् या सोम द्वारा (त्वम्) हे बृहस्पति ! तु (द्विषतः) द्वेषी शत्रुओं का (जहि) हनन कर।

    टिप्पणी

    [सोमः= सेना का प्रेरक, सेनानायक, जो कि सेना के अग्रभाग में हो कर, सेना को मार्ग दर्शाता है। सोमः= षू प्रेरणे (तुदादिः)। यह महती श्रवणशक्ति से सम्पन्न होना चाहिये, ताकि शत्रुसेना के शोर को दूर होती हुए भी सुन सके, तथा महती दृष्टि से भी सम्पन्न होना चाहिये, ताकि शत्रुसेना की स्थिति को दूर से ही देख सके। सोम और बृहस्पति सम्बन्धी मन्त्र, यथा- इन्द्रऽआसान्नेता बृहस्पतिर्दक्षिणा यज्ञः पुर एतु सोमः । देवसेनानामभिभञ्जतीनाञ्जयन्तीनाम्मरुतो यन्त्वग्रम् ॥ (यजु० १७।४०)। इन सेनाओं का नेता इन्द्र अर्थात् सम्राट् (यजु० ८।३७) है; बृहस्पति इन सेनाओं के दक्षिण पार्श्व में चलता है। "यज्ञ" अर्थात् शत्रुसेना के साथ संगम कराने वाला, भिड़ाने वाला सोम इन के पुर आगे-आगे हो। देवों अर्थात् विजिगीषु सैनिकों की सेनाएं, जोकि शत्रु सेनाओं का भग्न करें, उन के आगे मारने में कुशल सैनिक हों। यज्ञः = यज देवपूजा, संगतिकरण, और दान। मन्त्र में संगति अर्थात् संगम अर्थ अभिप्रेत हैं। देव=विजिगीषु, यथा “दिवु क्रीडाविजिगीषा" आदि (दिवादिः)। मरुतः = "म्रियते मारयति वा सः मरुत् मनुष्यजातिः" (उणा० १।९४, 'महर्षि दयानन्द)। अभिप्राय यह कि (१) सम्राट् नागरिक प्रजा और सैन्य प्रजा का नेता है, मुखिया है। (२) इस की आज्ञा द्वारा बृहस्पति युद्ध के लिये प्रयाण करे, (३) सैनिक विजिगीषु होने चाहिये, (४) सेना के मुखभाग में, मारने में सिद्ध, सैनिक होने चाहिये, (५) इन सब के आगे-आगे सोम अर्थात् सेना का प्रेरक, सेनानायक चले, जो कि शत्रु सेना की स्थिति को ठीक तरह देख सके। सोम सहायक है, बृहस्पति-का। मन्त्र ६-८ तक बृहस्पति द्वारा मानुष बृहस्पति का वर्णन हुआ है। मन्त्र ९ से बृहस्पति द्वारा परमेश्वर का वर्णन अभिप्रेत है। परमेश्वर "बृहत्" ब्रह्माण्ड का पति है, अतः बृहस्पति है। बृहस्पतिः=बृहतः [ब्रह्माण्डस्य] पतिः। इसी दृष्टि से सूर्य, चन्द्रमा आदि की, अन्नोत्पादन में बृहस्पति के सहायक रूप में वर्णित किया है (मन्त्र १० आदि)। परमेश्वर, जैसे समग्र ब्रह्माण्ड का उत्पादक है वैसे वह तेजः, आपः, और "अन्न" का भी उत्पादक है (छान्दोग्य उप० अध्याय ६, खण्ड २)।

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    विषय

    शिरोमणि पुरुषों का वर्णन।

    भावार्थ

    (यम् अबध्नात्० इत्यादि) पूर्ववत्। (तं सोमः) उस शिरोमणि पुरुष को सोम स्वरूप सबका प्रेरक राजा (महे) अपने बड़े महत्व पूर्ण कार्य (श्रोत्राय) कान के लिये अर्थात् राष्ट्र की सब शिकायतों को सुनने के लिये और (महे चक्षसे) चक्षु अर्थात् राष्ट्र के निरीक्षण के महत्वपूर्ण कार्य के लिये (प्रति अमुञ्चत) धारण करता है। (सः अस्मै वर्च इद् दुहे) वह राजा के वर्चः=तेज को बढ़ाता है। (भूयो भूयः श्वः श्वः तेन द्विषतो जहि) हे राजन् उसके बल पर तू भविष्य में अपने द्वेषकारी लोगों के मारने में समर्थ हो। उत्तम शिरोमणि पुरुषों को राजा वेतन पर राष्ट्र की प्रजाओं के परस्पर के विवादों को श्रवण करने और व्यवस्था के निरीक्षण के लिये नियुक्त करे। इससे राजा का ही तेज बढ़ता है, शत्रु नष्ट होते हैं।

    टिप्पणी

    (प०) ‘प्रत्यमुञ्चत द्रविणापरसायकम्। सो अस्मै महित’ इति पैप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    बृहस्पतिर्ऋषिः। फालमणिस्त वनस्पतिर्देवता। १, ४, २१ गायत्र्याः, ३ आप्या, ५ षट्पदा जगती, ६ सप्तपदा विराट् शक्वरी, ७-९ त्र्यवसाना अष्टपदा अष्टयः, १० नवपदा धृतिः, ११, २३-२७ पथ्यापंक्तिः, १२-१७ त्र्यवसाना षट्पदाः शक्वर्यः, २० पथ्यापंक्तिः, ३१ त्र्यवसाना षट्पदा जगती, ३५ पञ्चपदा अनुष्टुब् गर्भा जगती, २, १८, १९, २१, २२, २८-३०, ३२-३४ अनुष्टुभः। पञ्चत्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Manibandhana

    Meaning

    That jewel of abundance, powerful and replete with ghrta, born of the plough share of Khadira wood, which Brhaspati, the high priest, tied for the sake of strength and splendour, Sama, head of the spirit and powers of peace, order and joy, received and wore for vision, wisdom and listening to the revelation of the truth of universal order. May that jewel create and bring in for the recipient light and splendour again and again, day by day. O man, with that jewel of abundance, light and splendour, destroy the forces that hate and destroy.

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    Translation

    The formidable khadira blessing, obtained from plough-share, dripping purified butter, which the Lord supreme has bestowed for vigour, that (blessing) the Soma (the curative principle) has put on for acute hearing (Srotra) and vision (caksu). That, verily, yields purified butter to him, more and more, morrow to morrow. With that, may you destroy the malicious enemies.

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    Translation

    O man! through that Citron medicine destroy your diseases which hurt you. This is that citron plant which the man of genial temperament generous attitude accepts for generosity, for hearing and for sight and which the learned physician use to bind on the like powerful ghee-sprinkled Khadir, Acacia Catechu for gaining strength and vigor. This plant gives to man energy frequently from morning to morning.

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    Translation

    God, the Lord of mighty worlds hath created for strength, this laudable Vedic Law, the giver of reward, the rainer of lustre, mighty, full of eternal truths. A peace-loving man, the benefactor of humanity hath accepted it for might, for hearing, and for sight. It yields him energy indeed, again and again, from morn to morn. With this subdue thine enemies.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ८−(सोमः) सोमरसः। अन्नाद्यमृतपदार्थः (महे) मह पूजायाम्-क्विप् महत्त्वाय (श्रोत्राय) श्रवणसामर्थ्याय (चक्षसे) दर्शनसामर्थ्याय (वर्चः) तेजः। अन्यत् पूर्ववत् ॥

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