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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 14
    ऋषिः - यम, मन्त्रोक्त देवता - अनुष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
    66

    सोम॒ एके॑भ्यःपवते घृ॒तमेक॒ उपा॑सते। येभ्यो॒ मधु॑ प्र॒धाव॑ति॒ तांश्चि॑दे॒वापि॑ गच्छतात्॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सोम॑: । एके॑भ्य: । प॒व॒ते॒ । घृ॒तम् । एके॑ । उप॑ । आ॒स॒ते॒ । येभ्य॑: । मधु॑ । प्र॒ऽधाव॑ति । तान् । चि॒त् । ए॒व । अपि॑ । ग॒च्छ॒ता॒त् ॥२.१४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सोम एकेभ्यःपवते घृतमेक उपासते। येभ्यो मधु प्रधावति तांश्चिदेवापि गच्छतात्॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सोम: । एकेभ्य: । पवते । घृतम् । एके । उप । आसते । येभ्य: । मधु । प्रऽधावति । तान् । चित् । एव । अपि । गच्छतात् ॥२.१४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 2; मन्त्र » 14
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    हिन्दी (4)

    विषय

    विद्वानों के सत्सङ्ग से बढ़ती का उपदेश।

    पदार्थ

    (सोमः) ऐश्वर्य (एकेभ्यः) किन्हीं-किन्हीं [विद्वानों] को (पवते) मिलता है, (घृतम्) सार पदार्थको (एके) कोई-कोई [विद्वान्] (उप आसते) सेवते हैं। (येभ्यः) जिन [विद्वानों] को (मधु) विज्ञान (प्रधावति) शीघ्र प्राप्त होता है, (तान्) उन [सब महात्माओं] को (चित्) सत्कार से (एव) ही (अपि) अवश्य (गच्छतात्) तू प्राप्त हो ॥१४॥

    भावार्थ

    मनुष्य ऐश्वर्यवान्, तत्त्ववेत्ता, विज्ञानी पुरुषों को प्राप्त होकर उन्नति करें ॥१४॥मन्त्र १४-१८कुछ भेद वा अभेद से ऋग्वेद में हैं−१०।१५४।१, ४, २, ३, ५। और मन्त्र१४-१७ऋग्वेदपाठ से महर्षिदयानन्दकृत संस्कारविधि अन्त्येष्टिप्रकरण मेंउद्धृत हैं ॥

    टिप्पणी

    १४−(सोमः) ऐश्वर्यम् (एकेभ्यः) केभ्यश्चिद् विद्वद्भ्यः (पवते)पवतेर्गतिकर्मा-निघ० २।१४। गच्छति। प्राप्नोति (घृतम्) सारपदार्थम् (एके)केचिद् विद्वांसः (उपासते) उपभुञ्जते। सेवन्ते (येभ्यः) (मधु) विज्ञानम् (प्रधावति) प्रकर्षेण शीघ्रं गच्छति (तान्) विदुषः पुरुषान् (चित्) सत्कारे (एव)निश्चयेन (अपि) अवश्यम् (गच्छतात्) गच्छ। प्राप्नुहि ॥

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    विषय

    सोम-घृत-मधु

    पदार्थ

    १. (एकेभ्यः) = कुछ पितरों से (सोमः) = सोम [यत् सामानि सोम एभ्यः पवते । तै० २.१०.१] साममन्त्र-उपासना मन्त्र (पवते) = प्रवाहित होते हैं। (एके) = कई पितर (घृतम्) = [यद् यजूंषि घृतस्य कूल्या: । तै०२.१०.१] यजुर्मन्त्रों को (उपासते) = उपासित करते हैं, (येभ्य:) = जिससे मधु प्रभावति [यद् अथर्वागिसो मधोः कूल्या: तै० २.१०.१] अथर्वमन्त्र गतिवाले होते हैं। यह उपासक (चित्) = निश्चय से (तान् एव) = उनके प्रति ही (अपि गच्छतात्) = जानेवाला हो। २. जिन पितरों से साममन्त्र प्रवाहित होते हैं उनके सम्पर्क में यह साधक भी उपासना की वृत्तिवाला बनेगा। यजर्मन्त्रों के उपासकों के सम्पर्क में यह भी यज्ञशील होगा तथा अथर्वमन्त्रों में गतिवालों के सम्पर्क में यह भी अथर्वा [स्थिरवृत्ति] का बनता हुआ प्रभु को पास करनेवाला होगा।

    भावार्थ

    हम 'उपासक, यज्ञशील, स्थिरवृत्तिवाले' पितरों के सम्पर्क में आएँ और हम भी 'सोम-घृत-मधु' के उपासक बनें। साम, यजुः व अथर्वमन्त्रों को अपनानेवाले बनें।

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    भाषार्थ

    (एकेभ्यः) कईयों से (सोमः) भक्तिरस (पवते) प्रवाहित होता है, (एके) कई (घृतम्१ = घृतमाश्रित्य) घृत का आश्रय लेकर घृताहुतियों द्वारा (उपासते) परमेश्वर की उपासना करते हैं। कई ऐसे हैं (येभ्यः) जिन से कि (मधु) मिठास (प्रधावति) प्रवाहित होती है–(तान् चिद् एव) उन ही व्यक्तियों को सत्सङ्ग के लिये (अपि गच्छतात्) हे सद्गृहस्थ ! तू प्राप्त हुआ कर।

    टिप्पणी

    [मधु = जिनका जीवन मधुमय होता है, उन के विचार भाषण आचार और व्यवहार मधुर होते हैं, मीठे और प्रिय लगते हैं। इस मधुविद्या के लिये देखो (अथर्ववेद १।३४।१– ५)।] [१. अथवा कई वीर्यरक्षा द्वारा पूर्ण ब्रह्मचारी बनते हैं। "रेतः कृत्वाज्यं देवाः पुरुषमाविशन्" (अथर्व० ११।८।२९)।]

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    विषय

    पुरुष को सदाचारमय जीवन का उपदेश।

    भावार्थ

    (एकेभ्यः) किन्हीं विद्वानों के लिये (सोमः पवते) सोम=सोममय ब्रह्मरस बहता है। (एके घृतम् उपासते) और कोई विद्वान् घृत=आदित्य या यजुर्वेद प्रतिपादित तेजोमय ब्रह्म की उपासना करते हैं। (येभ्यः) जिनके लिये (मधु) मधु=अथर्व प्रोक्त ब्रह्मज्ञान (प्रधावति) प्रवाहित होता है। हे पुरुष ! तू (तान् चित्) उन पूज्य पुरुषों के पास (अपि गच्छतात्) सत्संग लाभ किया कर और ज्ञान प्राप्त कर।

    टिप्पणी

    यत्सामानि सोभ एभ्यः पवते...यद् मजूंषि घृतस्य कुल्याः। यद् अथर्वांगिरसो मधोः कुल्याः॥ इति तै० आ० २। १०। १॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। यमो मन्त्रोक्ताश्च बहवो दवताः। ४, ३४ अग्निः, ५ जातवेदाः, २९ पितरः । १,३,६, १४, १८, २०, २२, २३, २५, ३०, ३६,४६, ४८, ५०, ५२, ५६ अनुष्टुमः, ४, ७, ९, १३ जगत्यः, ५, २६, ३९, ५७ भुरिजः। १९ त्रिपदार्ची गायत्री। २४ त्रिपदा समविषमार्षी गायत्री। ३७ विराड् जगती। ३८, ४४ आर्षीगायत्र्यः (४०, ४२, ४४ भुरिजः) ४५ ककुम्मती अनुष्टुप्। शेषाः त्रिष्टुभः। षष्ट्यृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Victory, Freedom and Security

    Meaning

    Soma flows for many and purifies, they chant the Samans. Many love ghrta and offer it to the yajna fire, they chant the Yajus. Honey flows for those who chant the Atharva verses, and knowledge for the lovers of Rks. The spirit of life flows for all of them, universally. O soul you too be with them.

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    Translation

    Soma purifies itself for some: some wait upon ghee; for whom honey runs forward, unto them do thou go.

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    Translation

    For some (elders) the Soma-juice is prepared and some ones use ghee. O man, you also go to him for whom it is poured.

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    Translation

    Few learned persons attain to prosperity, few realize the real essence of things. There are others who speedily imbibe the knowledge of God. O man, approach all these learned persons, and derive knowledge from them.

    Footnote

    See Rig, 10-154-1

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १४−(सोमः) ऐश्वर्यम् (एकेभ्यः) केभ्यश्चिद् विद्वद्भ्यः (पवते)पवतेर्गतिकर्मा-निघ० २।१४। गच्छति। प्राप्नोति (घृतम्) सारपदार्थम् (एके)केचिद् विद्वांसः (उपासते) उपभुञ्जते। सेवन्ते (येभ्यः) (मधु) विज्ञानम् (प्रधावति) प्रकर्षेण शीघ्रं गच्छति (तान्) विदुषः पुरुषान् (चित्) सत्कारे (एव)निश्चयेन (अपि) अवश्यम् (गच्छतात्) गच्छ। प्राप्नुहि ॥

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