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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 36
    ऋषिः - यम, मन्त्रोक्त देवता - अनुष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
    77

    शं त॑प॒ माति॑तपो॒ अग्ने॒ मा त॒न्वं तपः॑। वने॑षु॒ शुष्मो॑ अस्तु ते पृथि॒व्याम॑स्तु॒यद्धरः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    शम् । त॒प॒ । मा । अति॑ । त॒प॒: । अग्ने॑ । मा । त॒न्व᳡म् । तप॑: । वने॑षु । शुष्म॑: । अ॒स्तु॒ । ते॒ । पृ॒थि॒व्याम् । अ॒स्तु॒ । यत् । हर॑: ॥२.३६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    शं तप मातितपो अग्ने मा तन्वं तपः। वनेषु शुष्मो अस्तु ते पृथिव्यामस्तुयद्धरः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    शम् । तप । मा । अति । तप: । अग्ने । मा । तन्वम् । तप: । वनेषु । शुष्म: । अस्तु । ते । पृथिव्याम् । अस्तु । यत् । हर: ॥२.३६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 2; मन्त्र » 36
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    बल बढ़ाने का उपदेश।

    पदार्थ

    (अग्ने) हे विद्वान् !तू (शम्) शान्ति के लिये (तप) तप कर, [किसी को] (अति) अत्याचार से (मा तपः) मततपा और [किसी के] (तन्वम्) शरीर को [अत्याचार से] (मा तपः) मत तपा [मत सता]। (वनेषु) सेवनीय व्यवहारों में (ते) तेरा (शुष्मः) बल (अस्तु) होवे और (यत्) जो (हरः) [तेरा] तेज है, वह (पृथिव्याम्) पृथिवी पर (अस्तु) होवे ॥३६॥

    भावार्थ

    विद्वान् पुरुष संसारमें शान्ति फैलाने के लिये शम दम आदि तप करे और किसी को किसी प्रकार न सतावे। इसविधि से बल बढ़ा उत्तम-उत्तम पदार्थ प्राप्त करके पृथिवी पर प्रतापी होवे॥३६॥

    टिप्पणी

    ३६−(शम्) शान्तये (तप) शमदमादितपः कुरु (अति) अत्याचारेण (मा तपः) मा तापय।मा दुःखय कमपि (अग्ने) हे विद्वन् पुरुष (तन्वम्) कस्यचिदपि शरीरम् (मा तपः) मादुःखय (वनेषु) वन सेवने-अच्। सेवनीयव्यवहारेषु (शुष्मः) (अस्तु) (ते) तव (पृथिव्याम्) भूमौ (अस्तु) (यत्) (हरः) हरो हरतेः, ज्योतिर्हर उच्यते-निरु०४।१९। तेजः ॥

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    विषय

    मर्यादित तप

    पदार्थ

    १. है (अग्ने) = अग्रणी आचार्य [अग्निराचार्यस्तव]! इस विद्यार्थी को शान्त जीवनवाला बनाने के लिए तपस्या में ले-चल, इसे (शं तप) = सुखकर तप करा, परन्तु (मा अति तपः) = मर्यादा से अधिक तप्त न करा। (तन्वं मा तपः) = इसके शरीर को संतप्त मत कर डाल। 'शरीरमबाधमानेन तपः आसेव्यम्' शरीर को न पीड़ित करते हुए ही तो तप करना चाहिए। २. हे आचार्य ! (वनेषु) = संभजनीय कर्मों में (ते) = आपका (शुष्मः) = बल (अस्तु) = हो तथा (यत्) = जो (हर:) = रोगों का हरण करनेवाला तेज है, वह (पृथिव्याम् अस्तु) = इस शरीररूप पृथिवी में हो। सेवनीय कर्मों को करते हुए हम शक्तिशाली बनें तथा शरीर में वह शक्ति हो जो हमें नीरोग बनाये रक्खे। आचार्य विद्यार्थी को ऐसा ही बनाने का यत्न करें।

    भावार्थ

    आचार्य विद्यार्थी को तपस्या की अग्नि में समुचितरूप से तप्त कराते हुए शान्त जीवनवाला बनाएँ। तपस्या में भी मर्यादा अपेक्षित है-शरीर को सन्तप्त नहीं कर देना। संभजनीय कर्मों को करते हुए विद्यार्थी सशक्त बनें और शरीर में रोगों का हरण करनेवाले तेज से युक्त हों।

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    भाषार्थ

    हे सद्गृहस्थ ! तू (शम्) शान्तिदायक मात्रा में (तप) तप किया कर, (अति) अतिमात्रा में (मा तपः) तप न किया कर। (अग्ने) हे ज्ञानवन् ! (तन्वम्) तनु को (मा तपः) मत तपाया कर। हे सद्गृहस्थिन! (वनेषु) वानप्रस्थियों में (शुष्मः) शोषक-तप (अस्तु) होना चाहिये। (पृथिव्याम) पार्थिव भोगों में अर्थात् गृहस्थ जीवन में (ते) तेरा तप ऐसा होना चाहिये (यत्) जो कि (हरः) आलस्य और प्रमाद का हरने-वाला हो ।

    टिप्पणी

    [तप के सम्बन्ध में योगदर्शन व्यासभाष्य (२।१) में लिखा है कि- "तपश्च चित्तप्रसादनमबाधमानमनेनासेव्यमिति मन्यन्ते"। अर्थात् तप उतनी मात्रा में करना चाहिये, जितने में चित्त में प्रसन्नता बनी रहे, और निज कार्यों में जो बाधक न हो। ज्ञानसम्पन्न गृहस्थी को अतिमात्रा में तप का निषेध किया है। तप के द्वारा तनु को कष्ट न पहुंचाना चाहिये। वनस्थ-जीवन में चाहे शोषक तप कर लिया जाय, परन्तु गृहस्थ-जीवन में शोषक-तप निषिद्ध है। तन्वम्=तनू-तप की अपेक्षा मनस्तप श्रेष्ठ है। यम-नियमों का परिपालन मनस्तप है।]

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    विषय

    पुरुष को सदाचारमय जीवन का उपदेश।

    भावार्थ

    हे (अग्ने) अग्ने ! परमेश्वर ! आचार्य ! तू (शं तप) कल्याण के लिये तपा, दण्ड दे, हमें (मा अति तपः) अधिक संतप्त मत कर। (तन्वं) हमारे शरीर को (मा तपः) मत पीड़ित कर। (ते) तेरा (शुष्मः) बल (वनेषु) वनों में अग्नि के समान शिष्यों में (अस्तु) प्रकट हो और तेरा (यत् हरः) जो हरस् तेज है वह (पृथि व्याम्) समस्त पृथिवो पर (अस्तु) विद्यमान रहे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। यमो मन्त्रोक्ताश्च बहवो दवताः। ४, ३४ अग्निः, ५ जातवेदाः, २९ पितरः । १,३,६, १४, १८, २०, २२, २३, २५, ३०, ३६,४६, ४८, ५०, ५२, ५६ अनुष्टुमः, ४, ७, ९, १३ जगत्यः, ५, २६, ३९, ५७ भुरिजः। १९ त्रिपदार्ची गायत्री। २४ त्रिपदा समविषमार्षी गायत्री। ३७ विराड् जगती। ३८, ४४ आर्षीगायत्र्यः (४०, ४२, ४४ भुरिजः) ४५ ककुम्मती अनुष्टुप्। शेषाः त्रिष्टुभः। षष्ट्यृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Victory, Freedom and Security

    Meaning

    Agni, temper us for peace, do not heat to excess, do not mortify the body. O Agni, O sage, O scholar, O grhasthi, let your light and passion shine in the daily businesses of life, let it shine on earth, let it shine to alleviate the pain and suffering of life.

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    Translation

    Burn thou propitiously; do not burn evermuch; O Agni, do not burn the body; be thy vehemence in the woods: on the earth be what is thy violence.

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    Translation

    O preceptor, you keep the student under your strict auspicious austerity, you do not punish him excessively and you do not cause torture on his body. Your strength remain in the good student and your brilliance on the earth.

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    Translation

    O Acharya, punish us for welfare. Don’t punish us too heavily. Don’t torment our body! Let thy force appear in thy disciples as that of fire in woods. May thy luster spread on earth!

    Footnote

    Force: Intellectual and spiritual strength.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३६−(शम्) शान्तये (तप) शमदमादितपः कुरु (अति) अत्याचारेण (मा तपः) मा तापय।मा दुःखय कमपि (अग्ने) हे विद्वन् पुरुष (तन्वम्) कस्यचिदपि शरीरम् (मा तपः) मादुःखय (वनेषु) वन सेवने-अच्। सेवनीयव्यवहारेषु (शुष्मः) (अस्तु) (ते) तव (पृथिव्याम्) भूमौ (अस्तु) (यत्) (हरः) हरो हरतेः, ज्योतिर्हर उच्यते-निरु०४।१९। तेजः ॥

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