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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 8
    ऋषिः - यम, मन्त्रोक्त देवता - त्रिष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
    58

    अ॒जोभा॒गस्तप॑स॒स्तं त॑पस्व॒ तं ते॑ शो॒चिस्त॑पतु॒ तं ते॑ अ॒र्चिः। यास्ते॑शि॒वास्त॒न्वो जातवेद॒स्ताभि॑र्वहैनं सु॒कृता॑मु लो॒कम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒ज: । भा॒ग: । तप॑स: । तम् । त॒प॒स्व॒ । तम् । ते॒ । शो॒चि: । त॒प॒तु॒ । तम् । ते॒ । अ॒र्चि: । या: । ते॒ । शि॒वा: । त॒न्व᳡: । जा॒त॒ऽवे॒द॒: । ताभि॑: । व॒ह॒ । ए॒न॒म् । सु॒ऽकृता॑म् । ऊं॒ इति॑ । लो॒कम् ॥२.८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अजोभागस्तपसस्तं तपस्व तं ते शोचिस्तपतु तं ते अर्चिः। यास्तेशिवास्तन्वो जातवेदस्ताभिर्वहैनं सुकृतामु लोकम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अज: । भाग: । तपस: । तम् । तपस्व । तम् । ते । शोचि: । तपतु । तम् । ते । अर्चि: । या: । ते । शिवा: । तन्व: । जातऽवेद: । ताभि: । वह । एनम् । सुऽकृताम् । ऊं इति । लोकम् ॥२.८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 2; मन्त्र » 8
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    आचार्य और ब्रह्मचारी के कर्त्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    [हे जीव !] (अजः)अजन्मा [वा गतिमान् जीवात्मा] (तपसः=तपसा) तप [ब्रह्मचर्यसेवन और वेदाध्ययन]से (भागः) सेवनीय है, (तम्) उसे (तपस्व) प्रतापी कर, (तम्) उसे (ते) तेरा (शोचिः) पवित्र कर्म और (तम्) उसे (ते) तेरा (अर्चिः) पूजनीय व्यवहार (तपतु)ऐश्वर्ययुक्त करे। (जातवेदः) हे बड़े विद्वान् ! (याः) जो (ते) तेरी (शिवाः)कल्याणकारी (तन्वः) उपकारशक्तियाँ हैं, (ताभिः) उनसे (एनम्) इस [जीवात्मा] को (सुकृताम्) पुण्यात्माओं के (लोकम्) लोक [समाज] में (उ) अवश्य (वह) लेजा ॥८॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य ब्रह्मचर्यसेवन, वेदाध्ययन और शुभ आचरण से आत्मवान् होकर उपकारी होवें, वे ही पुण्यात्माओंमें गिने जावें ॥८॥

    टिप्पणी

    ८−(अजः) न जायते, जन-ड, यद्वा, अज गतिक्षेपणयोः-अच्। अजाअजनाः-निरु० ४।२५। अजन्मा। गतिमान्। जीवात्मा (भागः) सेवनीयः (तपसः) तृतीयार्थेषष्ठी। तपसा। ब्रह्मचर्यसेवनेन वेदाध्ययनेन च (तम्) जीवात्मानम् (तपस्व) तपसन्तापे ऐश्वर्ये च। प्रतापिनं कुरु (तम्) (ते) तव (शोचिः) शुच शौचे-इसि। शौचंपवित्रकर्म (तपतु) ऐश्वर्यवन्तं करोतु (तम्) (ते) (अर्चिः) अर्च पूजायाम्-इसि।पूजनीयव्यवहारः (याः) (ते) तव (शिवाः) सुखकराः (तन्वः) तन उपकारे-ऊ।उपकारशक्तयः (जातवेदः) हे प्रसिद्धज्ञान। महाविद्वन् (ताभिः) उपकारशक्तिभिः (वह) प्रापय (एनम्) जीवात्मानम् (सुकृताम्) पुण्यकर्मणाम् (उ) अवश्यम् (लोकम्)समाजम् ॥

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    विषय

    'तप, पवित्रता व अर्चना' से प्रभु का धारण

    पदार्थ

    १. (अजः) = कभी न उत्पन्न होनेवाला [अज] अथवा गति के द्वारा सब बुराइयों को दूर करनेवाला [अज् गतिक्षेपणयो:] प्रभु ही (भाग:) = तेरा उपास्य है [भज सेवायाम] (तम्) = उस प्रभु को (तपसः) = तप के द्वारा (तपस्व) = अपने अन्दर दीप्त कर-उस प्रभु के प्रकाश को तप के द्वारा देखनेवाला बन । (तम्) = उस प्रभु को (ते शोचि:) = तेरी शुचिता [पवित्रता] (तपतु) = दीप्त करे। (तम्) = उस प्रभु को (ते अर्चि:) = तेरी पूजा व उपासना दीप्त करे। प्रभु का दर्शन 'तप-पवित्रता-व उपासना' से होता है। २. हे (जातवेदः) = उत्पन्न ज्ञानवाले उपासक! (या:) = जो तेरी (शिवाः तन्वः) = शिव तनु है-पवित्र कल्याणमय शरीर है, (ताभिः) = उन शरीरों से एनं वह इस प्रभु को अपने अन्दर धारण कर। उस प्रभु को धारण कर, जो (उ) = निश्चय से (सुकृतां लोकम्) = पुण्यशील लोगों के निवासस्थान हैं अथवा पुण्यशील लोगों को प्रकाश प्राप्त करानेवाले हैं।

    भावार्थ

    हम 'तप, पवित्रता व ज्ञानदीति तथा उपासना' से शरीरों को निर्दोष बनाते हुए उस प्रभु को धारण करनेवाले बनें, जिन प्रभु में पुण्यशील लोग निवास करते हैं।

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    भाषार्थ

    (जातवेदः) हे सर्वज्ञ परमेश्वर ! जीवन में जो (अजः) अनुत्पन्न अर्थात् नित्य (भागः) भाग जीवात्मा है, (तम्) उसे आप (तपसः) निज ज्ञान से (तपस्व) ज्ञानवान् कर दीजिये। (ते) आप की (शोचिः) शुचिता या चमक (तम्) उसे (तपतु) पवित्र कर दे और चमका दे, (ते) आप की (अर्चिः) अर्चनाएं (तम्) उसे (तपतु) ऐश्वर्ययुक्त कर दें। इसलिये हे परमेश्वर ! (ते) आप के (याः) जो (शिवाः) कल्याणकारी (तन्वः) उपकार या उपकारों के साधन हैं, (ताभिः) उनके द्वारा आप (एनम्) इस अनुत्पन्न = नित्य जीवात्मा को (सुकृताम् लोकम्) सुकर्मी लोगों में (वह) ले चलिये।

    टिप्पणी

    [तपसः = "यस्य ज्ञानमयं तपः" (मुण्डक १।१।२)। तप ऐश्वर्ये। तन्वः= तनु उपकरणे। अन्त्येष्टि में चिता की अग्नि में विद्यमान परमेश्वराग्नि को सम्बोधित कर प्रार्थना की गई है। अथर्ववेद में यथा - "अग्नावग्निश्चरति प्रविष्टः" (४।३९।९), अर्थात् प्राकृतिक अग्नि में आध्यात्मिक अग्नि प्रविष्ट हुई विचर रही है।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Victory, Freedom and Security

    Meaning

    O Jataveda, that part of human personality which is unborn and eternal, i.e., the soul, pray purify and season to its original purity by the heat of your divine discipline. May your light and fire purify and shine it to its original lustre beyond the dross. And by those divine natural potentials of yours which are holy and blissful, pray lead this soul to noble states of life in the blessed regions of meritorious souls.

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    Translation

    The goat is the share of the heat, heat thou that; that let thine ardor heat, that thy flame what propitious bodies are thine, O Jatavedas, with them carry him to the world of the welldoing.

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    Translation

    O All-pervading All-knowing God, the partner or observer of of austerity (the soul) is unborn (eternal), please make him observe austerity, may your heat make him austere, may the flame of your light enlighten him and please send him to that realm where men of good acts go, by your those re- sources which are auspicious.

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    Translation

    O God, the unborn soul feels pain and pleasure in the body. Strengthen it through Brahmcharya and Vedic study. May the flame of Thy knowledge, and Thy luster elevate it. With Thine auspicious powers bear this soul to the assembly of the pious.

    Footnote

    See Rig, 10-16-4. Sayana translates अज as a goat to be killed and offered in oblations in the Yajna. Vedas condemn human sacrifice, hence this explanation is irrational.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ८−(अजः) न जायते, जन-ड, यद्वा, अज गतिक्षेपणयोः-अच्। अजाअजनाः-निरु० ४।२५। अजन्मा। गतिमान्। जीवात्मा (भागः) सेवनीयः (तपसः) तृतीयार्थेषष्ठी। तपसा। ब्रह्मचर्यसेवनेन वेदाध्ययनेन च (तम्) जीवात्मानम् (तपस्व) तपसन्तापे ऐश्वर्ये च। प्रतापिनं कुरु (तम्) (ते) तव (शोचिः) शुच शौचे-इसि। शौचंपवित्रकर्म (तपतु) ऐश्वर्यवन्तं करोतु (तम्) (ते) (अर्चिः) अर्च पूजायाम्-इसि।पूजनीयव्यवहारः (याः) (ते) तव (शिवाः) सुखकराः (तन्वः) तन उपकारे-ऊ।उपकारशक्तयः (जातवेदः) हे प्रसिद्धज्ञान। महाविद्वन् (ताभिः) उपकारशक्तिभिः (वह) प्रापय (एनम्) जीवात्मानम् (सुकृताम्) पुण्यकर्मणाम् (उ) अवश्यम् (लोकम्)समाजम् ॥

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