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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 55
    ऋषिः - यम, मन्त्रोक्त देवता - त्रिष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
    45

    आयु॑र्वि॒श्वायुः॒ परि॑ पातु त्वा पू॒षा त्वा॑ पातु॒ प्रप॑थे पु॒रस्ता॑त्।यत्रास॑ते सु॒कृतो॒ यत्र॒ त ई॒युस्तत्र॑ त्वा दे॒वः स॑वि॒ता द॑धातु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आयु॑: । वि॒श्वऽआ॑यु: । परि॑ । पा॒तु॒ । त्वा॒ । पू॒षा । त्वा॒ । पा॒तु॒ । प्रऽप॑थे । पु॒रस्ता॑त् । यत्र॑ । आस॑ते । सु॒ऽकृत॑: । यत्र॑ । ते । ई॒यु: । तत्र॑ । त्वा॒ । दे॒व: । स॒वि॒ता । द॒धा॒तु॒ ॥२.५५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आयुर्विश्वायुः परि पातु त्वा पूषा त्वा पातु प्रपथे पुरस्तात्।यत्रासते सुकृतो यत्र त ईयुस्तत्र त्वा देवः सविता दधातु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आयु: । विश्वऽआयु: । परि । पातु । त्वा । पूषा । त्वा । पातु । प्रऽपथे । पुरस्तात् । यत्र । आसते । सुऽकृत: । यत्र । ते । ईयु: । तत्र । त्वा । देव: । सविता । दधातु ॥२.५५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 2; मन्त्र » 55
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    सत्पुरुषों के मार्ग पर चलने का उपदेश।

    पदार्थ

    (विश्वायुः) सबको अन्नदेनेवाला (आयुः) सर्वव्यापक परमात्मा (त्वा) तेरी (परि) सब ओर से (पातु) रक्षाकरे, (पूषा) पोषक परमेश्वर (प्रपथे) उत्तम मार्ग में (पुरस्तात्) सामने से (त्वा) तेरी (पातु) रक्षा करे। (यत्) जहाँ [उत्तम स्थान में] (सुकृतः) सुकर्मीलोग (आसते) बैठते हैं, और (यत्र) जहाँ [उत्तम मार्ग में] (ते) वे (ईयुः) चलेहैं, (तत्र) वहाँ [उस स्थान और मार्ग में] (त्वा) तुझको (देवः) प्रकाशमय (सविता)सर्वप्रेरक परमात्मा (दधातु) रक्खे ॥५५॥

    भावार्थ

    सर्वपालक, सर्वव्यापक, सर्वपोषक जगदीश्वर का आश्रय लेकर सदा सुकर्मी लोग सन्मार्ग पर चलते हैं, उसीजगत्पिता की शरण में रह कर प्रत्येक मनुष्य श्रेष्ठ मार्ग पर चल कर सुखी होवे॥५५॥

    टिप्पणी

    ५५−(आयुः) छन्दसीणः। उ० १।२। इण् गतौ-उण्। सर्वव्यापकः (विश्वायुः) आयुः, अन्नम्-निघः २।७। सर्वेभ्यः प्रापणीयमन्नं यस्मात् सः परमेश्वरः (परि) सर्वतः (पातु) (त्वा) (पूषा) पोषकः परमेश्वरः (त्वा) (पातु) (प्रपथे) प्रकृष्टे मार्गे (पुरस्तात्) अग्रे (यत्र) यस्मिन् श्रेष्ठस्थाने (आसते) उपविशन्ति (सुकृतः)पुण्यकर्माणः (यत्र) सन्मार्गे (ते) सुकृतिनः (ईयुः) जग्मुः (तत्र) स्थानेमार्गे च (त्वा) (देवः) प्रकाशमयः (सविता) सर्वप्रेरकः परमेश्वरः (दधातु)धारयतु। स्थापयतु ॥

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    विषय

    आयुः विश्वायुः

    पदार्थ

    १. (आयुः) = [इण् गतौ], सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को गति देनेवाला, (विश्वायु:) = [आयु: अन्नम् नि०२.७] सबके लिए अत्रों को प्राप्त करानेवाला (पूषा:) = पोषक प्रभु (त्वा परिपातु) = तेरा सर्वत्ररक्षण करे। यह प्रभु (त्वा) = तुझे (प्रपथे) = उत्कृष्ट मार्ग में (पुरस्तात् पातु) = आगे से रक्षित करे। प्रभु हमें उत्तम अन्नों को प्राप्त कराएँ और प्रशस्त मार्ग पर ले-चलें। सात्त्विक अन्नों से हमारी वृत्ति भी सात्विक ही बनेगी। २. (यत्र) = जिस मार्ग पर (सुकृत:) = पुण्यकर्मा लोग (आसते) = आसीन होते हैं, (यत्र) = जिस मार्ग पर (ते ईयु:) = वे गति करते हैं, (तत्र) = उस मार्ग पर (त्वा) = तुझे (सविता देव:) = प्रेरक प्रकाशमय प्रभु (दधातु) = धारण करें।

    भावार्थ

    प्रभु ही गति देनेवाले हैं, प्रभु ही सब अन्नों को प्राप्त कराते हैं। प्रभु हमें उत्कृष्ट मार्ग पर ले-चलते हैं। उस मार्ग पर ले-चलते हैं, जिस मार्ग से पुण्यकर्मा लोग गति करते हैं।

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    भाषार्थ

    (आयुः) तेरी आयु, (विश्वायुः) तेरी सम्पूर्ण १०० वर्षों की आयु (त्वा) तेरी (परिपातु) पूर्णतया रक्षा करे। अर्थात् तू इस आयु का दुरुपयोग न कर। (पूषा) पुष्टिकर्ता परमेश्वर, (प्रपथे) श्रेष्ठपथ पर चलते हुए का (पुरस्तात्) अगुआ बनकर, मार्गदर्शक बनकर (त्वा) तेरी (पातु) रक्षा करे। (यत्र) जिस मार्ग में (सुकृतः) सुकर्मी लोग (आसते) स्थित हैं, (यत्र) जिस मार्ग में (ते) वे सुकर्मी लोग (ईयुः) चले हैं, (तत्र) उस मार्ग में (सविता देवः) सर्वोत्पादक देव (त्वा) तुझे (दधातु) स्थापित करे, और तेरा पोषण करे।

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    विषय

    पुरुष को सदाचारमय जीवन का उपदेश।

    भावार्थ

    हे पुरुष ! हे जीव ! (विश्वायुः) समस्त संसार का आयु, जीवनस्वरूप (आयुः) साक्षात् जीवनस्वरूप सर्वव्यापक, परमेश्वर (त्वा) तेरी (परिपातु) सब प्रकार से रक्षा करे और (पुरस्तात्) आगे भी (प्रपथे) उत्तम मार्ग में (त्वा पूषा पातु) सर्वपोषक, परमात्मा तेरी रक्षा करे (यत्र) जिस लोक में (ते) वे विद्वान् प्रसिद्ध (सुकृतः) पुण्याचारी लोग (ईयुः) जाते हैं (तत्र) वहां (सविता देवः) सर्वोत्पादक परमेश्वर (त्वा) तुझे भी (दधातु) रक्खे।

    टिप्पणी

    (प्र०) ‘परिपासति त्वा (तृ०) ‘ते ययुः’ इति ऋ०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। यमो मन्त्रोक्ताश्च बहवो दवताः। ४, ३४ अग्निः, ५ जातवेदाः, २९ पितरः । १,३,६, १४, १८, २०, २२, २३, २५, ३०, ३६,४६, ४८, ५०, ५२, ५६ अनुष्टुमः, ४, ७, ९, १३ जगत्यः, ५, २६, ३९, ५७ भुरिजः। १९ त्रिपदार्ची गायत्री। २४ त्रिपदा समविषमार्षी गायत्री। ३७ विराड् जगती। ३८, ४४ आर्षीगायत्र्यः (४०, ४२, ४४ भुरिजः) ४५ ककुम्मती अनुष्टुप्। शेषाः त्रिष्टुभः। षष्ट्यृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Victory, Freedom and Security

    Meaning

    O man on the forward journey of life, may good health and universal life energy protect and promote you all round. May Pusha, lord of universal growth and advancement, protect and promote you upfront on the way forward. And may self-refulgent Savita, lord of light and life’s inspiration, establish you there where men of noble action reach and abide in peace and joy.

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    Translation

    May life-time, having all life-time, protect thee about; let Pushan protect thee in front on the forward road; where sit the well-doers, whither they have gone, there let god Savitar set thee.

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    Translation

    O Jiva, may Ayu, the Air, which is the life of world preserve you and may the sun protect you in the way (Devayana) without any hindrance. May all-creating Divinity send and keep you there where the men of good deeds go and find their place.

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    Translation

    O soul, may God, the Bestower of food to all, guard thee on all sides. May God, convey thee forward on the right path. May the All-creating God conduct thee thither where dwell the pious, and put you on the virtuous path trodden by them.

    Footnote

    See Rig, 10-17-4.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ५५−(आयुः) छन्दसीणः। उ० १।२। इण् गतौ-उण्। सर्वव्यापकः (विश्वायुः) आयुः, अन्नम्-निघः २।७। सर्वेभ्यः प्रापणीयमन्नं यस्मात् सः परमेश्वरः (परि) सर्वतः (पातु) (त्वा) (पूषा) पोषकः परमेश्वरः (त्वा) (पातु) (प्रपथे) प्रकृष्टे मार्गे (पुरस्तात्) अग्रे (यत्र) यस्मिन् श्रेष्ठस्थाने (आसते) उपविशन्ति (सुकृतः)पुण्यकर्माणः (यत्र) सन्मार्गे (ते) सुकृतिनः (ईयुः) जग्मुः (तत्र) स्थानेमार्गे च (त्वा) (देवः) प्रकाशमयः (सविता) सर्वप्रेरकः परमेश्वरः (दधातु)धारयतु। स्थापयतु ॥

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