अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 7
सूर्यं॒ चक्षु॑षागच्छ॒ वात॑मा॒त्मना॒ दिवं॑ च॒ गच्छ॑ पृथि॒वीं च॒ धर्म॑भिः। अ॒पो वा॑ गच्छ॒ यदि॒ तत्र॑ते हि॒तमोष॑धीषु॒ प्रति॑ तिष्ठा॒ शरी॑रैः ॥
स्वर सहित पद पाठसूर्य॑म् । चक्षु॑षा । ग॒च्छ॒ । वात॑म् । आ॒त्मना॑ । दिव॑म् । च॒ । गच्छ॑ । पृ॒थि॒वीम् । च॒ । धर्म॑ऽभि: । अ॒प: । वा॒ । ग॒च्छ॒ । यदि॑ । तत्र॑ । ते॒ । हि॒तम् । ओष॑धीषु । प्रति॑ । ति॒ष्ठ॒ । शरी॑रै: ॥२.७॥
स्वर रहित मन्त्र
सूर्यं चक्षुषागच्छ वातमात्मना दिवं च गच्छ पृथिवीं च धर्मभिः। अपो वा गच्छ यदि तत्रते हितमोषधीषु प्रति तिष्ठा शरीरैः ॥
स्वर रहित पद पाठसूर्यम् । चक्षुषा । गच्छ । वातम् । आत्मना । दिवम् । च । गच्छ । पृथिवीम् । च । धर्मऽभि: । अप: । वा । गच्छ । यदि । तत्र । ते । हितम् । ओषधीषु । प्रति । तिष्ठ । शरीरै: ॥२.७॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
आचार्य और ब्रह्मचारी के कर्त्तव्य का उपदेश।
पदार्थ
[हे जीव !] तू (सूर्यम्) सूर्य [तत्त्व] को (चक्षुषा) नेत्र से, (वातम्) वायु को (आत्मना)प्राण से (गच्छ) प्राप्त हो, (च) और (धर्मभिः) धर्मों [उनके धारण गुणों] से (दिवम्) आकाश को (च) और (पृथिवीम्) पृथिवी को (गच्छ) प्राप्त हो (वा) और (अपः)जल को (गच्छ) प्राप्त हो, और (ओषधीषु) ओषधियों [अन्न आदिकों] में (शरीरैः) [उनके] अङ्गों सहित (प्रति तिष्ठ) प्रतिष्ठा पा, (यदि) क्योंकि (तत्र) वहाँ [उनसब में] (ते) तेरा (हितम्) हित है ॥७॥
भावार्थ
जो मनुष्य नेत्र आदिइन्द्रियों की रचना और उपकारों से सूर्य आदि के तत्त्वों को जानकर विज्ञानद्वारा अन्न आदि पदार्थों और उनके अङ्गों से अपना और संसार का भला करते हैं, वेही सर्वहितकारी होते हैं ॥७॥मन्त्र ७, ८ कुछ भेद से ऋग्वेद में हैं−१०।१६।३, ४और ऋग्वेदपाठ महर्षिदयानन्दकृतसंस्कारविधि अन्त्येष्टिप्रकरण में उद्धृत है॥
टिप्पणी
७−(सूर्यम्) सूर्यतत्त्वम् (चक्षुषा) नेत्रविज्ञानेन (गच्छ) प्राप्नुहि।ज्ञानीहि (वातम्) वायुतत्त्वम् (आत्मना) प्राणेन (दिवम्) आकाशतत्त्वम् (च) (गच्छ) (पृथिवीम्) पृथिवीतत्त्वम् (च) (धर्मभिः) तेषां धारणगुणैः (अपः) जलम् (वा) च (गच्छ) (यदि) यतः (तत्र) तेषु पूर्वोक्तेषु (ते) तव (हितम्) इष्टम् (ओषधीषु) व्रीहियवादिषु (प्रतितिष्ठ) प्रतिष्ठितो भव (शरीरैः) अवयवैः ॥
विषय
सूर्य आदि देवों के साथ सम्पर्क से शरीर का स्वास्थ्य सूर्य
पदार्थ
१. तू (चक्षुषा) = चक्षु के हेतु से (सूर्यं गच्छ) = सूर्य के प्रति जा। सूर्य ही तो चक्षु का रूप धारण करके आँखों में प्रवेश करता है 'सूर्यश्चक्षुर्भूत्वाक्षिणी प्राविशत् । सूर्याभिमुख होकर हम प्रभु का ध्यान करते हैं और सूर्य आँखों में शक्ति प्राप्त कराता है। (आत्मना) = [आत्मा प्राणाः, सा०] प्राणों के हेतु से (वातम्) = वायु की ओर जा। शुद्ध वायु में प्राणायाम के द्वारा प्राणशक्ति का वर्धन होता ही है। (दिवं च गच्छ) = द्युलोक की ओर तू जानेवाला बन। अपने मस्तिष्करूप द्युलोक को तू विज्ञान के नक्षत्रों से और ज्ञान के सूर्य से दीप्त करनेवाला हो (च) = और (धर्मभि:) = अंग-प्रत्यंग के धारण के उद्देश्य से तू (पृथिवीं गच्छ) = शरीररूप पृथिवी की ओर जानेवाला बन। शरीर को स्वस्थ रखने के लिए पृथिवी से सम्पर्क आवश्यक है। मिट्टी शरीर के विषों को बैंच लेती है। २. इसीप्रकार तू (अपः गच्छ) = जलों की ओर जानेवाला बन । शरीर में जल रेत:कणों के रूप में रहते हैं। यदि तत्र ते (हितम्) = यदि वहाँ तेरा हित है तो तू इन रेत:कणों की ओर जानेवाला बन। इन रेतःकणों का रक्षण आवश्यक ही है। तू (शरीरैः) = अपने 'स्थूल-सूक्ष्म व कारण' शरीरों के हेतु से ओषधीषु प्रतितिष्ठा-ओषधियों में प्रतिष्ठित हो। वानस्पतिक भोजनों के द्वारा हमारे सब शरीर ठीक रहते हैं।
भावार्थ
सूर्य आदि देवों के साथ हमारी अनुकूलता बनी रहे। शरीरों के स्वास्थ्य के लिए वानस्पतिक भोजनों का ही प्रयोग करें। देव वनस्पति का ही सेवन करते हैं। मांस देवों का भोजन नहीं है।
भाषार्थ
(चक्षुषा) निज दिव्यदृष्टि के कारण तू (सूर्यम्) सूर्य को (गच्छ) प्राप्त हो। (आत्मना) दिव्यदृष्टि से रहित केवल आत्मस्वरूप द्वारा तू (वातम्) वायुमण्डल को प्राप्त हो, (धर्मभिः) किये धर्मकर्मों के अनुसार तू (दिवं च) द्युलोक और (पृथिवीं च) पृथिवीलोक को (गच्छ) प्राप्त हो। (वा) अथवा (अपः) समुद्रादिरूप जलों को (गच्छ) प्राप्त हो।(यदि) अगर (तत्र) वहां (ते) तेरा (हितम्) हित सम्पादन हो, या (शरीरैः) शरीरों की दृष्टि से तू (ओषधीषु) ओषधियों में (प्रति तिष्ठ) स्थिति प्राप्त कर।
टिप्पणी
[योगाभ्यास द्वारा जिन में दिव्यदृष्टि उत्पन्न हो गई है, वे मृत्यु के पश्चात् सूर्य को प्राप्त होते हैं, और दिव्यदृष्टिरहित आत्मा वायुमण्डल को प्राप्त होते हैं। योगज उत्कृष्ट धर्मों द्वारा मुक्तात्मा द्युलोक को, और इष्टापूर्त्त धर्मों के करनेवाले पृथिवी में ही विचरते रहते हैं। कई आत्मा जलों में जलचर प्राणी बन जाते हैं, और अधर्मकर्मी जीवात्मा ओषधि-वृक्षों में जाते हैं। यह आवागमन जीवात्माओं के हित के लिये होता है, ताकि वे कर्मफल भोगकर शनैः-शनैः मोक्ष के अधिकारी होते जाँय। शरीरैः= बहुवचन का या तो यह अभिप्राय है कि नीचकर्मों के करनेवालों को ओषधि आदि में बार-बार जन्म लेने होते हैं, ताकि उनके बुरे संस्कार दग्धबीजवत् हो जाँय, या यह अभिप्राय है कि वे तीनों शरीरों समेत ओषधि जीवन व्यतीत करते हैं। तीन शरीर = स्थूलशरीर, सूक्ष्मशरीर, तथा कारणशरीर।]
विषय
पुरुष को सदाचारमय जीवन का उपदेश।
भावार्थ
हे पुरुष (चक्षुषा) अपने चक्षु द्वारा (सूर्यम्) सूर्य के प्रकाश को (गच्छ) प्राप्त कर, आंख से तेज का ग्रहण कर। (आत्मना) अपने शरीर से (वातम्) प्राण वायु को ग्रहण कर। (धर्मभिः) शरीर के धारक बलों द्वारा (दिवम्) द्यौः- आकाश और (पृथिवीम् च) पृथिवो को भी (गच्छ) प्राप्त कर, अपने वश कर। (अपः वा गच्छ) तू जलों को भी प्राप्त कर। और (यदि) जो कुछ (तत्र) उन (ओषधीषु) ओषधियों में भी (ते) तेरे लिये (हितम्) हितकर पदार्थ विद्यमान है तो उसको भी प्राप्त कर। फलतः तू (शरीरैः) अपने प्राप्त शरीरों से (प्रति तिष्ठाः) लोकों में प्रतिष्ठित होकर रह।
टिप्पणी
(प्र०) ‘चक्षुर्गच्छतु’, ‘आत्मा’ (द्वि०) ‘द्यां’, ‘धर्मणां’ इति ऋ०। ‘सूर्यं ते’ तै० आ०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। यमो मन्त्रोक्ताश्च बहवो दवताः। ४, ३४ अग्निः, ५ जातवेदाः, २९ पितरः । १,३,६, १४, १८, २०, २२, २३, २५, ३०, ३६,४६, ४८, ५०, ५२, ५६ अनुष्टुमः, ४, ७, ९, १३ जगत्यः, ५, २६, ३९, ५७ भुरिजः। १९ त्रिपदार्ची गायत्री। २४ त्रिपदा समविषमार्षी गायत्री। ३७ विराड् जगती। ३८, ४४ आर्षीगायत्र्यः (४०, ४२, ४४ भुरिजः) ४५ ककुम्मती अनुष्टुप्। शेषाः त्रिष्टुभः। षष्ट्यृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Victory, Freedom and Security
Meaning
O soul, with your vision of the eye go to the sun, with your pranic energy of the soul go to the wind, or in consequence of your Dharma and karmic performance go to the regions of light and joy or to the earth, or, if such be your intent and desire, go to the waters or reach into the herbs and trees there to stay in mere body form.
Translation
Go thou to the sun with thine eye, to the wind with thy soul; go both to heaven and to earth with (their) due shares; or go to the waters, if there it is acceptable to thee; in the herbs stand firm with thy bodies.
Translation
This Jiva goes to the sun by his eye, he goes to air by vital. air, he goes to space and earth by his Dharmas and goes to water and plants if his previous actions are to bear fruit there under God's dispensation of justice.
Translation
O man, receive the light of the Sun through thine eye, the wind through breath. Master heaven and earth realizing their attributes. Understand the efficacy of waters! If you find any efficacy in plants, utilize it to your advantage with all their limbs and parts.
Footnote
See Rig, 10-16-3.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
७−(सूर्यम्) सूर्यतत्त्वम् (चक्षुषा) नेत्रविज्ञानेन (गच्छ) प्राप्नुहि।ज्ञानीहि (वातम्) वायुतत्त्वम् (आत्मना) प्राणेन (दिवम्) आकाशतत्त्वम् (च) (गच्छ) (पृथिवीम्) पृथिवीतत्त्वम् (च) (धर्मभिः) तेषां धारणगुणैः (अपः) जलम् (वा) च (गच्छ) (यदि) यतः (तत्र) तेषु पूर्वोक्तेषु (ते) तव (हितम्) इष्टम् (ओषधीषु) व्रीहियवादिषु (प्रतितिष्ठ) प्रतिष्ठितो भव (शरीरैः) अवयवैः ॥
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