अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 4/ मन्त्र 16
सूक्त - भार्गवो वैदर्भिः
देवता - प्राणः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - प्राण सूक्त
आ॑थर्व॒णीरा॑ङ्गिर॒सीर्दै॒वीर्म॑नुष्य॒जा उ॒त। ओष॑धयः॒ प्र जा॑यन्ते य॒दा त्वं प्रा॑ण॒ जिन्व॑सि ॥
स्वर सहित पद पाठआ॒थ॒र्व॒णी: । आ॒ङ्गि॒र॒सी: । दैवी॑: । म॒नु॒ष्य॒ऽजा: । उ॒त । ओष॑धय: । प्र । जा॒य॒न्ते॒ । य॒दा । त्वम् । प्रा॒ण॒ । जिन्व॑सि ॥६.१६॥
स्वर रहित मन्त्र
आथर्वणीराङ्गिरसीर्दैवीर्मनुष्यजा उत। ओषधयः प्र जायन्ते यदा त्वं प्राण जिन्वसि ॥
स्वर रहित पद पाठआथर्वणी: । आङ्गिरसी: । दैवी: । मनुष्यऽजा: । उत । ओषधय: । प्र । जायन्ते । यदा । त्वम् । प्राण । जिन्वसि ॥६.१६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 4; मन्त्र » 16
भाषार्थ -
आथर्वणी, आङ्गिरसी, देवी और मनुष्यज ओषधियां पैदा होती हैं जबकि हे प्राण ! तू उन्हें प्रीणित करता है।
टिप्पणी -
[आथर्वणीः १= मनोनिरोध द्वारा उत्पन्न मानसिक शक्ति आथर्वणी ओषधि हैं। अथर्वा = थर्वतिः चरतिकर्मा, तत्प्रतिषेधः (निरुक्त ११।२।१४) अर्थात् मन की चञ्चलता का प्रतिषेध, अर्थात् मन की स्थिरता, निरोध। यथा "आ त्वागमं शंतातिभिरथो अरिष्टतातिभिः। दक्षं त उग्रमाभारिषं परा यक्ष्मं सुवामि ते" (अथर्व० ४।१३।५), मनोबल चिकित्सक कहता है कि "मैं तुझे शान्ति देने वाली और तुझे स्वस्थ करने वाली ओषधियों के साथ आया हूं। उग्रबल तेरे लिये मैं लाया हूं, तेरे यक्ष्मरोग को मैं प्रेरित करता हूँ"। अयं मे हस्तो भगवानयं मे भगवत्तरः। अयं मे विश्वभेषजोऽयं शिवाभिमर्शनः ॥ (अथर्व० ४।१३।६), "यह मेरा हाथ भाग्यशाली है, यह मेरा अधिक भाग्यशाली हैं। यह मेरा सब रोगों का ओषधरूप है, यह छूने अर्थात् स्पर्शमात्र से कल्याण करता है"। हस्ताभ्यां दशशाखाभ्यां जिह्वा वाचः पुरोगवी। अनामयित्नुभ्यां हस्ताभ्यां ताभ्यां त्वाभि मृशामसि ॥ (अथर्व० ४।१३।७), "दस शाखाओं अर्थात् अङ्गुलियों वाले दो हाथों से पहिले वाणी सम्बन्धी जिह्वा चलती है। आमय अर्थात् रोगों को हराने वाले उन दो हाथों द्वारा तेरा मैं स्पर्श करता हूँ, या हम करते हैं। इस प्रकार मन्त्रों में हस्त-स्पर्श चिकित्सा, तथा वाणी द्वारा, रोगी के रोग को दूर करने का आश्वासन दिया है। इस प्रकार की मनोबल चिकित्सा आथर्वणी-ओषधि चिकित्सा है। आङ्गिरसीः१-वेदों में अग्नि को अङ्गिरा कहा है। यथा “तं त्वा समिद्भिरङ्गिरो घृतेन वर्द्धयामसि" यजुर्वेद (३।३) मन्त्रोक्त अङ्गिरा अग्नि यज्ञियाग्नि है। अग्निहोत्र तथा यज्ञशालाओं की अग्नियों से उत्थित यज्ञधूम स्वास्थ्य कर तथा रोग विनाशक होता है। तभी अग्नि को "रक्षोहा" अर्थात् रोगजनक कीटाणुओं का हनन करने वाला तथा “अमीवचातनः" अर्थात् रोगनाशक कहा है, (अथर्व० १।२८।१)। इसलिये अग्नियां ओषधि रूप हैं। ओषधि = जलन तथा दोषों का धयन करने वाली। गृह्याग्निहोत्र की अग्नियां, तथा यज्ञशालोयाग्नियां नाना हैं। इसलिये “आङ्गिरसोः ओषधयः" में बहुवचन भी उपपन्न हो जाता है। तथा "अयास्य२" प्राण को "आङ्गिरस" अर्थात् अङ्गिरा-सम्बन्धी कहा है। यथा- "अथ हेममासन्यं प्राणमूचुस्त्वं न उद्गायेति तथेति तेभ्य एष प्राण उदगायत्ते विदुरनेन वै न उद्गात्राऽत्येष्यन्तीति तदभिद्रुत्य पाप्मनाविव्यत्सन्त्स यथाऽश्मानमृत्वा लोष्टो विध्वसेतैव हैव विध्वसमाना विष्वञ्चो विनेशुस्ततो देवा अभवन् परासुरा भवत्यात्मना परास्य द्विषन्भ्रातृव्यो भवति य एवं वेद॥ते होचुः क्व नु सोऽभूद्यो न इत्थमसक्तेत्ययमास्येऽन्तरिति सोऽयास्य आङ्गिरसोऽङ्गाना हि रसः॥ (बृहदा० उप० ब्राह्मण ३। खण्ड ७, ८)। तथा "सोऽयास्य आङ्गिरसोऽङ्गाना हि रसः प्राणो वा अङ्गाना रसः प्राणो हि वा अङ्गाना रसस्तस्माद्यस्मात्कस्माच्चाङ्गात्प्राण उत्क्रामति तदेव तच्छुष्यतिष हि वा अङ्गाना रसः॥ (खण्ड १९)। अर्थात् वे इस आस्य-प्राण को बोले कि हमारे लिये तू गा। उन्होंने कहा कि वह कहां है कि जिस ने हमें इस प्रकार विजय दिलाई है, उत्तर मिला कि वह यह है जो कि आस्य अर्थात् मुख के अन्दर है। वह है "अयास्य आङ्गिरस", अर्थात् "अङ्गों का रस"। वह अयास "आङ्गिरस" निश्चय से अङ्गो का रस है, प्राण ही अङ्गों का रस है, इसलिये जिस किसी अङ्ग से प्राण निकल जाता है वह-वह सूख जाता है। इस सन्दर्भ या खण्ड में आसन्य अर्थात् मुखस्थ प्राण के गान का वर्णन हुआ है। नासिका, मुख और उरुः स्थल में संचार करने वाली वायु द्वारा गाना सम्पन्न होता है। इसे आङ्गिरस कहा है, अर्थात् शरीर और तदङ्गों का रस। इस प्रकार प्राण जीवनीय, स्वास्थ्यप्रद तथा रोगनिवारक होने से महौषध रूप है। यही मुख्य प्राण, अपान, व्यान, समान, और उदान रूप में विभक्त हो कर जीवनचर्या का कारण बन रहा है, अतः "आङ्गिरसीः ओषधयः" रूप हैं। दैवीः= पृथिवी, अप्, तेज और वायु दैवी ओषधियां हैं। पृथिवी अर्थात् मिट्टी के प्रलेप द्वारा त्वचा के विकारों ओर अङ्गों की पीड़ाओं का शमन होता है। अप् अर्थात् जल चिकित्सा द्वारा विविध रोगों की निवृत्ति होती है (अथर्व० १।४।४;१।५।१-४)। तेज अर्थात् आग्नेय, सौर तथा विद्युत् सम्बन्धी तेज भी रोगशामक हैं। वायु अर्थात् वात के लिये देखो (मन्त्र १५ की टिप्पणी)। मनुष्यजाः-मनुष्यज ओषधियों के लिये आयुर्वेद के ग्रन्थ द्रष्टव्य हैं।] [(१) अथर्वा तथा अङ्गिरा पदों के "औषध अर्थ" की दृष्टि से वेद को "अथर्वाङ्गिरसः" कहा प्रतीत होता है। यथा “अथर्वाङ्गिरसो मुखम्” (अथर्व० १०/७/२०)। (२) अमास्यः="अयम् + "आस्ये" अथवा "अयते (एति) आस्ये"। (क) “यस्य कृण्मो हविर्गृहे तमग्ने वर्धया त्वम्" (यजु. १७।५) अर्थात् जिस के गृह में हम हविर्यज्ञ करते हैं उसे हे अग्नि! तू बढ़ा। इस प्रकार स्वास्थ्य तथा आयु की बृद्धि अग्निहोत्र द्वारा होने के कारण अङ्गिरा-अग्नि-औषध रूप है। अथवा 'मन को स्थिरता प्रदान करने वाली तथा अङ्गो में रसोत्पादिका ओषियां= आथर्वणी तथा आङ्गिरसी ओषधियां।]