अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 4/ मन्त्र 21
सूक्त - भार्गवो वैदर्भिः
देवता - प्राणः
छन्दः - मध्येज्योतिर्जगती
सूक्तम् - प्राण सूक्त
एकं॒ पादं॒ नोत्खि॑दति सलि॒लाद्धं॒स उ॒च्चर॑न्। यद॒ङ्ग स तमु॑त्खि॒देन्नैवाद्य न श्वः स्या॑न्न रात्री॒ नाहः॑ स्या॒न्न व्युच्छेत्क॒दा च॒न ॥
स्वर सहित पद पाठएक॑म् । पाद॑म् । न । उत् । खि॒द॒ति॒ । स॒लि॒लात् । हं॒स: । उ॒त्ऽचर॑न् । यत् । अ॒ङ्ग । स: । तम् । उ॒त्ऽखि॒देत् । न । ए॒व । अ॒द्य । न । श्व: । स्या॒त् । न । रात्री॑ । न । अह॑: । स्या॒त् । न । वि । उ॒च्छे॒त् । क॒दा । च॒न ॥६.२१॥
स्वर रहित मन्त्र
एकं पादं नोत्खिदति सलिलाद्धंस उच्चरन्। यदङ्ग स तमुत्खिदेन्नैवाद्य न श्वः स्यान्न रात्री नाहः स्यान्न व्युच्छेत्कदा चन ॥
स्वर रहित पद पाठएकम् । पादम् । न । उत् । खिदति । सलिलात् । हंस: । उत्ऽचरन् । यत् । अङ्ग । स: । तम् । उत्ऽखिदेत् । न । एव । अद्य । न । श्व: । स्यात् । न । रात्री । न । अह: । स्यात् । न । वि । उच्छेत् । कदा । चन ॥६.२१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 4; मन्त्र » 21
भाषार्थ -
(हंसः) प्राणवायु (सलिलात्) जल के समीप से (उच्चरन्) उत्थान करता हुआ, उड़ता हुआ, (एकं पादम्) एक पैर को (न उत्खिदति) नहीं उखाड़ता (अङ्ग) हे प्रिय ! (यत्) यदि (सः) वह (तम्) उसे (उत्खिदेत्) उखाड़ दे तो [व्यक्ति के लिये] (न एव अद्य) न ही आज हो, (नश्वः) न कल (स्यात्) हो, (न रात्री) न रात, (न अहः) न दिन हो, (न कदाचन व्युच्छेत्) न कभी उषा चमके ।
टिप्पणी -
[हंस पद द्वारा प्राणवायु का वर्णन हुआ हैं। हंस जल के वासी हैं, इसलिये सलिल का प्रयोग हुआ है। प्राणवायुरूपी हंस, रक्तरूपी जल के आशयभूत हृदय के समीपस्थ फेफड़ों से उत्थान कर उड़ता है नासिका द्वारा शरीर से बाहर जाता है। बाहर उड़ कर जाता हुआ भी वह मानो अपना एक पाद शरीर के साथ जमाए रखता है। जैसे कि सूत द्वारा बद्धपाद-पक्षी कुछ दूर तक उड़ कर जाता हुआ भी अपने बन्धन के साथ बन्धा रहता है। यदि प्राण बन्धन छोड़ जाय तो, व्यक्ति की मृत्यु हो जाने से, उस के लिये आज-कल, रात्री-दिन तथा उषा आदि का व्यवहार नहीं रहता। हंसः = हन् + सः (षणु दाने) +डः। प्राण वायु के कारण शरीरगत दुर्गन्ध का हनन और नवीन वायु का प्रदान होता रहता है। शरीरगत दुर्गन्ध गन्दी वायु है, जो कि नासिका द्वारा बहिर्गत होती रहती है। सूर्य पक्ष में भी मन्त्रार्थ सुसङ्गत होता हैं]।