अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 4/ मन्त्र 24
सूक्त - भार्गवो वैदर्भिः
देवता - प्राणः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - प्राण सूक्त
यो अ॒स्य स॒र्वज॑न्मन॒ ईशे॒ सर्व॑स्य॒ चेष्ट॑तः। अत॑न्द्रो॒ ब्रह्म॑णा॒ धीरः॑ प्रा॒णो मानु॑ तिष्ठतु ॥
स्वर सहित पद पाठय: । अ॒स्य । स॒र्वऽज॑न्मन: । ईशे॑ । सर्व॑स्य । चेष्ट॑त: । अत॑न्द्र: । ब्रह्म॑णा । धीर॑: । प्रा॒ण: । मा॒ । अनु॑ । ति॒ष्ठ॒तु॒ ॥६.२४॥
स्वर रहित मन्त्र
यो अस्य सर्वजन्मन ईशे सर्वस्य चेष्टतः। अतन्द्रो ब्रह्मणा धीरः प्राणो मानु तिष्ठतु ॥
स्वर रहित पद पाठय: । अस्य । सर्वऽजन्मन: । ईशे । सर्वस्य । चेष्टत: । अतन्द्र: । ब्रह्मणा । धीर: । प्राण: । मा । अनु । तिष्ठतु ॥६.२४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 4; मन्त्र » 24
भाषार्थ -
(यः प्राणः) जो प्राण (सर्वजन्मनः) नानाविध जन्मों वाले, (चेष्टतः) और चेष्टा वाले (अस्य विश्वस्य) इस विश्व का (ईशे) अधीश्वर है (अतन्द्रः) आलस्यरहित (धीरः) तथा कर्मशील है वह प्राण (ब्रह्मणा) ब्रह्म के साथ (मा अनु) मुझे लक्ष्य कर के (विष्ठतु) स्थित हो, अर्थात् मुझ में स्थित हो।
टिप्पणी -
[धीरः= इस पद के दो अर्थ हैं बुद्धिवाला अर्थात् बुद्धिमान्, तथा कर्मशील। धीः = कर्म (निघं० २।२), प्रज्ञानाम (निघं० ३।९) + र (वाला)। प्राण कर्मशील है, प्रज्ञावाला नहीं। "अनु" शब्द लक्षणार्थक१ है । मन्त्र का अभिप्राय यह है कि प्राण, ब्रह्म के साथ, मुझ में स्थिर रहे प्राण की स्थिति द्वारा जीवन की अभिलाषा तभी फलवती हो सकती है यदि जीवन काल में ब्रह्म के साथ भी संसर्ग बना रहे, अन्यथा केवल प्राणमय जीवन निष्फल है]।[१. अनुर्लक्षणे(अष्टा० १।४।८४)।]