अथर्ववेद - काण्ड 15/ सूक्त 5/ मन्त्र 11
सूक्त - रुद्र
देवता - द्विपदा प्राजापत्या अनुष्टुप्, निचृद् ब्राह्मी गायत्री
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
रु॒द्रए॑नमिष्वा॒सो ध्रु॒वाया॑ दि॒शो अ॑न्तर्दे॒शाद॑नुष्ठा॒तानु॑ तिष्ठति॒ नैनं॑श॒र्वो न॑ भ॒वो नेशा॑नः। नास्य॑ प॒शून्न स॑मा॒नान्हि॑नस्ति॒ य ए॒वं वेद॑ ॥
स्वर सहित पद पाठरु॒द्र: । ए॒न॒म् । इ॒षु॒ऽआ॒स: । ध्रु॒वाया॑: । दि॒श: । अ॒न्त॒:ऽदे॒शात् । अ॒नु॒ऽस्था॒ता । अनु॑ । ति॒ष्ठ॒ति॒ । न । ए॒न॒म् । श॒र्व: । न । भ॒व: । न । ईशा॑न: । न । अ॒स्य॒ । प॒शून् । न । स॒मा॒नम् । हि॒न॒स्ति॒ । य: । ए॒वम् । वेद॑ ॥५.११॥
स्वर रहित मन्त्र
रुद्रएनमिष्वासो ध्रुवाया दिशो अन्तर्देशादनुष्ठातानु तिष्ठति नैनंशर्वो न भवो नेशानः। नास्य पशून्न समानान्हिनस्ति य एवं वेद ॥
स्वर रहित पद पाठरुद्र: । एनम् । इषुऽआस: । ध्रुवाया: । दिश: । अन्त:ऽदेशात् । अनुऽस्थाता । अनु । तिष्ठति । न । एनम् । शर्व: । न । भव: । न । ईशान: । न । अस्य । पशून् । न । समानम् । हिनस्ति । य: । एवम् । वेद ॥५.११॥
अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 5; मन्त्र » 11
भाषार्थ -
(अनुष्ठाता) निरन्तर साथ रहने वाला (रुद्रः) पापियों को रुलाने वाला परमेश्वर (ध्रुवायाः दिशः) ध्रुवा दिशा सम्बन्धी (अन्तर्देशात्) अवान्तर अर्थात् भूतल और द्युलोक के मध्यवर्ती अन्तरिक्ष प्रदेश से, (इष्वासः) मानो इषुप्रहारी या धनुर्धारी होकर, (एनम्) इस व्रात्य के साथ (अनु तिष्ठति) निरन्तर स्थित रहता है। (एनम्) इसे (न शर्वः) न दुःखनाशक परमेश्वर, (न भवः) न सुखोत्पादक परमेश्वर, (न ईशानः) और न सर्वाधीश्वर परमेश्वर (हिनस्ति) हिंसित करता या हिंसित होते देता है। (न) और न (अस्य) इस के (पशून्) पशुओं की, (न समानान्) न समान आदि प्राण वायुओं की (हिनस्ति) हिंसा करता या हिंसा होने देता है (यः) जो व्रात्य कि (एवम्) इस प्रकार के तथ्य को (वेद) जानता तथा तदनुसार जीवनचर्या करता है ।।११।। (व्याख्या, मन्त्र २-३)। मन्त्र में रुद्र द्वारा रौद्रस्वरूप परमेश्वर का वर्णन हुआ है।
टिप्पणी -
[भुतलरूपी- ध्रुवा दिशा की दृष्टि से ऊर्ध्वादिशा द्युलोक है, जिस में कि सूर्य, नक्षत्र, तथा अनन्त तारागण हैं। इस लिये पृथिवी ध्रुवादिग्रूप है, और द्युलोक ऊर्ध्वादिक है, तथा इन दोनों के मध्यवर्ती प्रदेश अन्तरिक्ष है, जिस में कि वायु, मेघ और विद्युत् का निवास है]