अथर्ववेद - काण्ड 15/ सूक्त 5/ मन्त्र 3
सूक्त - रुद्र
देवता - द्विपदा प्राजापत्या अनुष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
नास्य॑ प॒शून्न स॑मा॒नान्हि॑नस्ति॒ य ए॒वं वेद॑ ॥
स्वर सहित पद पाठन । अ॒स्य॒ । प॒शून् । न । स॒मा॒नम् । हि॒न॒स्ति॒ । य: । ए॒वम् । वेद॑ ॥५.३॥
स्वर रहित मन्त्र
नास्य पशून्न समानान्हिनस्ति य एवं वेद ॥
स्वर रहित पद पाठन । अस्य । पशून् । न । समानम् । हिनस्ति । य: । एवम् । वेद ॥५.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 5; मन्त्र » 3
भाषार्थ -
(न) और न (अस्य) इस व्रात्य के (पशुन्) पशुओं की, (न समानान्) न समान आदि प्राण वायुओं की (हिनस्ति) हिंसा करता, हिंसा होने देता है (यः) जो व्रात्य कि (एवम्) इस प्रकार के तथ्य को (वेद) जानता तथा तदनुसार जीवनचर्या करता है ॥३ ॥
टिप्पणी -
[व्याख्या -अनुष्ठाता, अनुतिष्ठति=परमेश्वर सर्वत्र तथा सब के हृदयों में निरन्तर स्थित है, वह व्रात्य के हृदय में भी निरन्तर स्थित हुआ, मानो इषुप्रहारी या धनुर्धारी हो कर, व्रात्य की सदा रक्षा करता है। मन्त्र २ के पिछले पाद का सम्बन्ध मन्त्र ३ के "हिनस्ति" पद के साथ भी है। शर्वः=शृणाति हिनस्तीति = दुःखविनाशक। ईशानः = ईष्टे इति। पशून् = इस अध्यात्म प्रकरण में पशून् का अर्थ है ज्ञानेन्द्रियां और कर्मेन्द्रियां। यथा "इन्द्रियाणि हयानाहुर्विषयांस्तेषु गोचरान्। (कठ० उप० १।३।४) में इन्द्रियों को हय अर्थात् अश्व कहा है, तथा "गोचरान्" द्वारा इन्द्रियों के विषयों को गोचर कह कर इन्द्रियों को गावः भी कहा है। गोचर अर्थात् गौएं (इन्द्रियां) जिन में विचरती हैं, वे विषय। समानान् = समान आदि प्राण वायुओं। प्राण, अपान, व्यान तो प्रसिद्धि द्वारा ज्ञात हैं। परन्तु समान, उदान, नाग, कूर्म, कृकल देवदत्त, धनञ्जय आदि प्राण-वायुए अप्रसिद्ध हैं, अतः समानान् में बहुवचन द्वारा समान आदि का कथन मन्त्र में हुआ है। निम्निलिखित श्लोक प्राण आदि के स्वरूपों का परिचय देते हैं। यथा:- निः श्वासोच्छ्वासकासाश्च प्राणकर्मेति कीर्त्तिनाः। अपानवायोः कर्मैतद् विण्मूत्रादि विसर्जनम् ॥ हानोपादान चेष्टादि व्यानकर्मेति चेष्यते। उदानकर्म तत् प्रोक्तं देहस्योन्नयनादि यत् ॥ पोषणादि समानस्य शरीरे कर्म कीर्त्तितम्। उद्गारादि गुणो यस्तु नागकर्मेति चोच्यते ॥ निमीलनादि कूर्मस्य क्षुतं वै कृकलस्य च। देवदत्तस्य विपेन्द्र ! तन्द्री कर्मेति कीर्त्तितम् ॥ धनंजयस्य शोफादि सर्वकर्म प्रकीर्त्तितम्। (याज्ञवल्क्य अ० ६६-६९)।। श्वास को भीतर लेना, श्वास को बाहर फैंकना, खांसना,= ये प्राण के कर्म हैं। मल मूत्र आदि का त्याग अपान के कर्म हैं। देना, लेना, चेष्टा आदि व्यान के कर्म हैं। देह का उन्नयन, उछलना, कूदना, आदि उदान के कर्म हैं। शरीर की पुष्टि और शरीर में रस-रक्त का संचार समान के कर्म हैं। डकार आदि नाग के कर्म हैं। आंख को बन्द करना आदि कूर्म के कर्म हैं। भूख-प्यास कृकल के कर्म, आलस्य निद्रा सुस्ती देवदत्त के कर्म, तथा सोजश आदि धनंजय के कर्म हैं]।