अथर्ववेद - काण्ड 15/ सूक्त 5/ मन्त्र 14
सूक्त - रुद्र
देवता - भुरिग्विषमा गायत्री
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
तस्मै॒सर्वे॑भ्यो अन्तर्दे॒शेभ्य॒ ईशा॑नमिष्वा॒सम॑नुष्ठा॒तार॑मकुर्वन् ॥
स्वर सहित पद पाठतस्मै॑ । सर्वे॑भ्य:। अ॒न्त॒:ऽदे॒शेभ्य॑: । ईशा॑नम् । इ॒षु॒ऽआ॒सम् । अ॒नु॒ऽस्था॒तार॑म् । अ॒कु॒र्व॒न् ॥५.१४॥
स्वर रहित मन्त्र
तस्मैसर्वेभ्यो अन्तर्देशेभ्य ईशानमिष्वासमनुष्ठातारमकुर्वन् ॥
स्वर रहित पद पाठतस्मै । सर्वेभ्य:। अन्त:ऽदेशेभ्य: । ईशानम् । इषुऽआसम् । अनुऽस्थातारम् । अकुर्वन् ॥५.१४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 5; मन्त्र » 14
भाषार्थ -
(तस्मै) उस व्रात्य संन्यासी के लिये [वैदिक विधियों ने] (सर्वेभ्यः) सभी (अन्तर्देशेभ्यः) अवान्तर प्रदेशों से (इष्वासम्) मानो इषुप्रहारी या धनुर्धारी (ईशानम्) सर्वाधीश्वर परमेश्वर को (अनुष्ठातारम्) व्रात्य के साथ निरन्तर स्थित रहनेवाला (अकुर्वन्) निर्दिष्ट किया है।
टिप्पणी -
[सर्वेभ्य अन्तर्देशेभ्यः= अर्थात् महर्लोक से ऊपर के जनः, तपः, सत्यम्, –ये तीनलोक, तथा भूः, भुव, स्वः और महः, -ये ४ लोक, तथा सूक्त ५वें में कथित अवान्तर आदि प्रदेश- इन सब का, अर्थात् ब्रह्माण्ड का एक ही सर्वाधीश है, जिसे कि "ईशान" कहा है]