अथर्ववेद - काण्ड 15/ सूक्त 5/ मन्त्र 12
सूक्त - रुद्र
देवता - त्रिपदा ककुप् उष्णिक्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
तस्मा॑ऊ॒र्ध्वाया॑ दि॒शो अ॑न्तर्दे॒शान्म॑हादे॒वमि॑ष्वा॒सम॑नुष्ठा॒तार॑मकुर्वन् ॥
स्वर सहित पद पाठतस्मै॑ । ऊ॒र्ध्वाया॑: । दि॒श: । अ॒न्त॒:ऽदे॒शात् । म॒हा॒ऽदे॒वम् । इ॒षु॒ऽआ॒सम् । अ॒नु॒ऽस्था॒तार॑म् । अ॒कु॒र्व॒न् ॥५.१२॥
स्वर रहित मन्त्र
तस्माऊर्ध्वाया दिशो अन्तर्देशान्महादेवमिष्वासमनुष्ठातारमकुर्वन् ॥
स्वर रहित पद पाठतस्मै । ऊर्ध्वाया: । दिश: । अन्त:ऽदेशात् । महाऽदेवम् । इषुऽआसम् । अनुऽस्थातारम् । अकुर्वन् ॥५.१२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 5; मन्त्र » 12
भाषार्थ -
(तस्मै) उस व्रात्य संन्यासी के लिए [वैदिक विधियों ने] (ऊर्ध्वायाः दिशः) ऊर्ध्वादिशा सम्बन्धी (अन्तर्देशात्) अवान्तर अर्थात् मध्यवर्ती प्रदेश से (इष्वासम्) मानो इषुप्रहारी या धनुर्धारी (महादेवम्) "महादेव" को (अनुष्ठातारम्) व्रात्य के साथ निरन्तर स्थित रहने वाला (अकुर्वन) निर्दिष्ट किया है।
टिप्पणी -
[महादेवम् = परमेश्वर को महादेव कहा है। यह महादेव, परमेश्वर के पूर्वोक्त भव, शर्व नामों आदि की अपेक्षा से महाव्यापी है, महाप्रदेश सम्बन्धी है। इस रूप में परमेश्वर, ऊर्ध्वादिक अर्थात् द्युलोक से महर्लोक तक प्रशासन करता है। महर्लोक के साथ भी सम्बन्ध होने से परमेश्वर को महादेव कहा प्रतीत होता है। द्युलोक से परे स्वर्लोक तथा स्वर्लोक से भी परे "महर्लोक" है। यथा:- ब्राह्मस्त्रिभूमिको लोकः प्राजापत्यस्ततो महान्। महेन्द्रश्च स्वरित्युक्तो दिवि तारा भुवि प्रजाः॥ (योगदर्शन ३।२६, व्यास भाष्य)। अर्थात् जनः, तपः, सत्यम्– ये तीन ब्राह्मलोक हैं, इन से नीचे "महः" नाम का प्राजापत्य लोक है, इस से नीचे "स्वः" नाम का माहेन्द्रलोक है, इस से नीचे "द्युलोक" है जिस में कि तारागण हैं, तथा इस से नीचे पृथिवीलोक है जिस में कि मनुष्य आदि प्रजाएं रहती हैं। अतः पृथिवी से परे द्युलोक, द्युलोक से परे स्वर्लोक, और स्वर्लोक से परे महर्लोक है, जिस तक के अधीश्वर को "महादेव" कहा गया प्रतीत होता है। वैदिक दृष्टि में ७ लोक हैं, भूः, भुवः स्वः, महः, जनः, तपः, सत्यम्। इन में से "महः" तक के प्रशासक होने के कारण परमेश्वर को महादेव कहा है]