अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 6/ मन्त्र 11
सूक्त - नारायणः
देवता - पुरुषः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - जगद्बीजपुरुष सूक्त
तं य॒ज्ञं प्रा॒वृषा॒ प्रौक्ष॒न्पुरु॑षं जा॒तम॑ग्र॒शः। तेन॑ दे॒वा अ॑यजन्त सा॒ध्या वस॑वश्च॒ ये ॥
स्वर सहित पद पाठतम्। य॒ज्ञम्। प्रा॒वृषा॑। प्र। औ॒क्ष॒न्। पुरु॑षम्। जा॒तम्। अ॒ग्र॒ऽशः। तेन॑। दे॒वाः। अ॒य॒ज॒न्तः॒। सा॒ध्याः। वस॑वः। च॒। ये ॥६.११॥
स्वर रहित मन्त्र
तं यज्ञं प्रावृषा प्रौक्षन्पुरुषं जातमग्रशः। तेन देवा अयजन्त साध्या वसवश्च ये ॥
स्वर रहित पद पाठतम्। यज्ञम्। प्रावृषा। प्र। औक्षन्। पुरुषम्। जातम्। अग्रऽशः। तेन। देवाः। अयजन्तः। साध्याः। वसवः। च। ये ॥६.११॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 6; मन्त्र » 11
भाषार्थ -
(अग्रशः) समक्ष (जातम्) प्रकट हुए (तम्) उस (यज्ञम्) पूजनीय (पुरुषम्) पूर्ण परमेश्वर को, (ये साध्याः वसवः च) जो योग-साधना-सम्पन्न, तथा ऋषि-कोटि के वसु आदि ब्रह्मचारी हैं, वे (प्रावृषा) भक्तिरस की प्रकृष्ट वर्षा द्वारा (प्रौक्षन्) सींचते हैं। और (देवाः) ये दिव्य साध्य और वसु (तेन) इस विधि द्वारा (अजयन्त) परमेश्वरोपासनारूप यज्ञ रचाते हैं।
टिप्पणी -
[यजुर्वेद में “साध्या ऋषयश्च ये” पाठ है (यजु० ३१।म० ९)। इसलिये वसवः का अर्थ किया है “ऋषि-कोटि के वसु आदि ब्रह्मचारी, वसु रुद्र और आदित्य ब्रह्मचारी। यज्ञम्= "यज् देवपूजा।”]