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अथर्ववेद > काण्ड 19 > सूक्त 6

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  • अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 6/ मन्त्र 2
    सूक्त - नारायणः देवता - पुरुषः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - जगद्बीजपुरुष सूक्त

    त्रि॒भिः प॒द्भिर्द्याम॑रोह॒त्पाद॑स्ये॒हाभ॑व॒त्पुनः॑। तथा॒ व्यक्राम॒द्विष्व॑ङ्ङशनानश॒ने अनु॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्रि॒ऽभिः। प॒त्ऽभिः। द्याम्। अ॒रो॒ह॒त्। पात। अ॒स्य॒। इ॒ह। अ॒भ॒व॒त्। पुनः॑। तथा॑। वि। अ॒क्रा॒म॒त्। विष्व॑ङ्। अ॒श॒ना॒न॒श॒ने इत्य॑शनऽअ॒न॒श॒ने। अनु॑ ॥६.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्रिभिः पद्भिर्द्यामरोहत्पादस्येहाभवत्पुनः। तथा व्यक्रामद्विष्वङ्ङशनानशने अनु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्रिऽभिः। पत्ऽभिः। द्याम्। अरोहत्। पात। अस्य। इह। अभवत्। पुनः। तथा। वि। अक्रामत्। विष्वङ्। अशनानशने इत्यशनऽअनशने। अनु ॥६.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 6; मन्त्र » 2

    भाषार्थ -
    (त्रिभिः पद्भिः) तीन पादों की दृष्टि से परमेश्वर (द्याम्) निज दिव्य प्रकाश में (अरोहत्) प्रादुर्भूत है। और (अस्य) इस परमेश्वर का (पाद्) एक पाद (इह) इस ब्रह्माण्ड में (पुनः) बार-बार (अभवत्) प्रकट होता रहता है। (तथा) और (विष्वङ्) सर्वत्र विद्यमान परमेश्वर (अशनानशने अनु) भोजन करने वाले चेतन, तथा न भोजन करने वाले जड़ जगत् पर (अनु) निरन्तर (व्यक्रामत्) अपना विक्रम किये हुए हैं।

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