अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 6/ मन्त्र 8
सूक्त - नारायणः
देवता - पुरुषः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - जगद्बीजपुरुष सूक्त
नाभ्या॑ आसीद॒न्तरि॑क्षं शी॒र्ष्णो द्यौः सम॑वर्तत। प॒द्भ्यां भूमि॒र्दिशः॒ श्रोत्रा॒त्तथा॑ लो॒काँ अ॑कल्पयन् ॥
स्वर सहित पद पाठनाभ्याः॑। आ॒सी॒त्। अ॒न्तरि॑क्षम्। शी॒र्ष्णः। द्यौः। सम्। अ॒व॒र्त॒त॒। प॒त्ऽभ्याम्। भूमिः॑। दिशः॑। श्रोत्रा॑त्। तथा॑। लो॒कान्। अ॒क॒ल्प॒य॒न् ॥६.८॥
स्वर रहित मन्त्र
नाभ्या आसीदन्तरिक्षं शीर्ष्णो द्यौः समवर्तत। पद्भ्यां भूमिर्दिशः श्रोत्रात्तथा लोकाँ अकल्पयन् ॥
स्वर रहित पद पाठनाभ्याः। आसीत्। अन्तरिक्षम्। शीर्ष्णः। द्यौः। सम्। अवर्तत। पत्ऽभ्याम्। भूमिः। दिशः। श्रोत्रात्। तथा। लोकान्। अकल्पयन् ॥६.८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 6; मन्त्र » 8
भाषार्थ -
(नाभ्याः) नाभि को लक्ष्य करके (अन्तरिक्षम् आसीत्) अन्तरिक्ष हुआ। (शीर्ष्णः) शिर को लक्ष्य करके (द्यौः) द्युलोक (समवर्तत) सम्यक् वर्तमान हुआ। (पद्भ्याम्) पैरों को लक्ष्य करके (भूमिः) पृथिवी प्रकट हुई। (श्रोत्रात्) श्रोत्र को लक्ष्य करके (दिशः) दिशाएं प्रकट हुई। (तथा) इस प्रकार विद्वान् लोग (लोकान्) लोक-लोकान्तरों को (अकल्पयन्) कल्पना करते हैं।
टिप्पणी -
[मन्त्र १९.६.६-८, राजन्यः= “सोऽरज्यत ततो राजन्योऽजायत” (अथर्व० १५.८.१) अर्थात् उस व्रात्य अर्थात् प्रजापालन—व्रतधारी राजा ने प्रजा का रञ्जन किया, उसे प्रसन्न किया। तत्पश्चात् वह राजन्य हुआ। कवि ने कहा है कि “राजा प्रकृतिरञ्जनात्” अर्थात् प्रजाओं के रञ्जन से शासक को राजा कहते हैं। राजन्य पद में प्रजाओं के रञ्जन की भावना निहित है। मन्त्र ६ में प्रजावर्गों का वर्णन एक-शरीर के रूप में किया गया है। अंग्रेजी में इसे Organic-whole कहते हैं। तभी ब्राह्मण को मुख, राजन्य को बाहू, वैश्य को शरीर का मध्यभाग और शूद्र को पादौ कहा है। मुख बाहू मध्यभाग तथा पाद मिलकर एक शरीर बनता है। मुख से अभिप्राय मुखसहित सिर का है; बाहू से दोनों भुजाओं और इनके बीच की छाती का; मध्य से पेट तथा जंघाओं का; तथा पादौ से अभिप्राय पैरों का है। अभिप्राय यह है कि शरीर में मुख आदि अवयव जैसे पारस्परिक सांमञ्जस्य संज्ञान तथा समन्वय में कार्य करते हैं, वैसे समाज-शरीर में ब्राह्मण आदि वर्गों, तथा समाज के अन्य भेदोपभेदों में पारस्परिक सहानुभूति, परोपकारिता, परस्पर प्रेम और परस्पर वर्ताव आदि की भावनाएं होनी चाहियें। मन्त्र ७, ८— मनसः=मन अधिक वेगवान् है। इसलिए परमेश्वर की वेगवत्ता या सर्वव्यापकता का वर्णन “मनसो जवीयः” द्वारा किया गया है (यजुः० ४०.४)। चन्द्रमा भी नक्षत्रमण्डल में सर्वाधिक वेग वाला प्रतीत होता है। इसीलिए आधिदैविक सृष्टि में चन्द्रमा का सम्बन्ध मन के साथ दर्शाया है। चन्द्रमा मनसो जातः= मनो लक्ष्यीकृत्य चन्द्रमा जातः। इसी प्रकार आगे भी जानना चाहिए। चक्षु तेजः प्रधान है। इसलिए तेजोमय सूर्य का सम्बन्ध चक्षुः के साथ दर्शाया है। मुख के दो काम हैं। शब्द बोलना और मुख में चबाएं ग्रास को भस्मीभूत कर देना। इन्द्र का अर्थ है—विद्युत्। विद्युत गर्जती है, शब्द पैदा करती है। अग्नि जलाकर वस्तु को भस्मीभूत कर देती है। इसलिए विद्युत् और अग्नि का सम्बन्ध मुख के साथ दर्शाया है। वायु का सम्बन्ध प्राण के साथ दर्शाया है। प्राण का अभिप्राय है—प्राणवायु, जो कि नासिका द्वारा शरीर में विचरती है। नाभि शरीर का मध्यभाग है। इसलिए द्युलोक और भूलोक के मध्यवर्ती अन्तरिक्ष का सम्बन्ध नाभि के साथ दर्शाया है। सिर ज्ञान-प्रकाश का स्थान है। द्युलोक भी प्रकाशमय है। इसलिए द्यौः का सम्बन्ध सिर के साथ दर्शाया है। भूमि नीचे है, “पादौ” भी शरीर के निचले भाग हैं। इसलिए भूमि का सम्बन्ध “पादौ” के साथ दर्शाया है। श्रोत्र का सम्बन्ध दिशा के साथ दर्शाया है। शब्द सुनते ही ज्ञान हो जाता है कि शब्द किस दिशा से आया है। “शब्दवेधी बाण” की सफलता इसीलिए होती है, चूंकि शब्द का दिशा के साथ सम्बन्ध है। अकल्पयन्= उपयुक्त सब वर्णन कवितारूप में कल्पनामात्र है, वास्तविक नहीं। कल्पना का प्रयोजन निम्नलिखित है— कवि की कल्पना में कोई प्रयोजन होता है। वेद दर्शाता है कि आधिदैविक सृष्टि भी एक संगठित शरीररूप है, एक organic whole है। मन्त्र ६ में आधिभौतिक दृष्टि से समाजशरीर का वर्णन है। मन्त्र ७, ८ में आधिदैविक जगत् को एक शरीर कहने का यह अभिप्राय है कि जैसे वैयक्तिक शरीर के अवयव परस्पर में सांमञ्जस्य में संगठित हैं, और इस वैयक्तिक-संगठित शरीर का संचालक जीवात्मा है, वैसे ही इस आधिदैविक शरीर के भी अवयव परस्पर में सांमञ्जस्यरूप में संगठित हैं, और इसका भी संचालक एक आत्मा है, जिसे कि परमात्मा कहते हैं।]