अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 127/ मन्त्र 1
सूक्त -
देवता - प्रजापतिरिन्द्रो वा
छन्दः - पथ्या बृहती
सूक्तम् - कुन्ताप सूक्त
इ॒दं जना॒ उप॑ श्रुत॒ नरा॒शंस॒ स्तवि॑ष्यते। ष॒ष्टिं स॒हस्रा॑ नव॒तिं च॑ कौरम॒ आ रु॒शमे॑षु दद्महे ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒दम् । जना॒: । उप॑ । श्रुत॒ । नरा॒शंस॒: । स्तवि॑ष्यते ॥ ष॒ष्टिम् । स॒हस्रा॑ । नव॒तिम् । च॑ । कौरम॒ । आ । रु॒शमे॑षु । दद्महे ॥१२७.१॥
स्वर रहित मन्त्र
इदं जना उप श्रुत नराशंस स्तविष्यते। षष्टिं सहस्रा नवतिं च कौरम आ रुशमेषु दद्महे ॥
स्वर रहित पद पाठइदम् । जना: । उप । श्रुत । नराशंस: । स्तविष्यते ॥ षष्टिम् । सहस्रा । नवतिम् । च । कौरम । आ । रुशमेषु । दद्महे ॥१२७.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 127; मन्त्र » 1
भाषार्थ -
[१२७ सूक्त से १३६ सूक्त तक “कुन्ताप-सूक्त” हैं, ये सूक्त “खिल” अर्थात् परिशिष्ट हैं। महर्षि दयानन्द ने इन्हें “प्रक्षिप्त” माना है, अर्थात् मिलावट माना है। “चतुर्वेद-विषय-सूची” (वैदिक यन्त्रालय अजमेर) में उनका कथन निम्नलिखित हैः— (१) “य एष स्वप्ननंशन इत्यादि पदार्थविद्या”। “अथर्ववेदे विंशम् काण्डम्”॥ २०॥ “इति अथर्ववेदस्य सूचीपत्रम् समाप्तम्”॥ अर्थात् “य एष स्वप्ननंशनः” (सूक्त १२६, मन्त्र २१ से) पदार्थविद्या का वर्णन है। “अथर्ववेद में २० वां काण्ड समाप्त”। “यह अथर्ववेद का सूचीपत्र समाप्त हुआ”। (२) “भद्रेण वचसा वयम्” (अथर्व০ १२७.१४) इत्यादि; “गोमयाद् (गोमीद्या) गोगतिरिव (गोगतिरिति)” (अथर्व০ १२९.१३) इत्यादि; “आदलाबुकमेककम्, अलाबुकं निखातकम्” (अथर्व০ १३२.१, २)॥ १॥ इत्यादि; “उद्भिर्यथालाबुनि” (अथर्व০ १३५.२ ; १३५.३) इत्यादि; “इदं राधो विभु प्रभु” (अथर्व০ १३५.९) इत्यादि;—इति कुन्तपा-सूक्तानि समाप्तानि। परिशिष्टानि प्रक्षिप्तानीति विज्ञेयम्॥ अभिप्राय यह है कि सूक्त १२७, मन्त्र १४ से सूक्त १३६ की समाप्ति तक ‘कुन्ताप-सूक्त’ समाप्त हैं। ये परिशिष्ट हैं, प्रक्षिप्त हैं—यह जानना चाहिए। (३) तथा “अथर्ववेदीय बृहदनुक्रमणी” में भी “इदं जना” (सूक्त १२७ से लेकर “यद्ध प्राचीः” (सूक्त १३७) से पूर्व तक अर्थात् २०.१२७ से १३६ सूक्तों को “खिलानि” कहा है। “खिल” का अर्थ परिशिष्ट या प्रक्षिप्त है। इन सूक्तों के मन्त्रों में, स्थान-स्थान पर पद अत्यन्त अस्पष्टार्थक हैं, तथा मन्त्रों के अभिप्राय अतिगूढ़ हैं। टिप्पणी—(१) “भद्रेण वचसा वयम्” से पूर्व “इदं जना उप श्रुत” (अथर्व০ १२७.१) यह पाठ भी चाहिए था जो किसी कारण छूट गया है, या कम्पोजिंग में रह गया है। क्योंकि कुन्ताप-सूक्तों का प्रारम्भ “इदं जना उप श्रुत” से होता है, न कि “भद्रेण वचसा वयम्” से। (२) “य एष स्वप्ननंशनः” (सूक्त १३६, मन्त्र २१) इत्यादि पदार्थविद्या,”—द्वारा महर्षि ने २० वें मण्डल की समाप्ति तक, अर्थात् सूक्त १४३, मन्त्र ९ तक का विषय निर्देश कर दिया है। परन्तु इन सूक्तों के मध्य में १२७ वें सूक्त से लेकर १३६ वें सूक्त तक “कुन्ताप-सूक्त” पठित हैं, जिन्हें कि महर्षि ने परिशिष्ट अर्थात् प्रक्षिप्त कहा है। (३) परन्तु वह सन्दर्भ जिसमें कि “कुन्ताप सूक्तों” को परिशिष्ट अर्थात् प्रक्षिप्त कहा है, उसके अन्त में निम्नलिखित वाक्य “चतुर्वेद-विषय-सूची” में और मिलता है। यथा—“यद्वा वाणीत्यादि (सूक्त १४२, मन्त्र ४); ऋतस्येत्यादि (सूक्त १४३, मन्त्र ३); मधुमानित्यादि (सूक्त १४३, मन्त्र ८) पदार्थविद्या।” इस वाक्य द्वारा यह प्रतीत होता है कि कुन्ताप-सूक्तों के पश्चात् के सूक्त भी, अर्थात् २० वें काण्ड की समाप्ति तक २० वें काण्ड के ही भाग हैं।] (जनाः) हे प्रजाजनो! (इदम्) यह (उप श्रुत) ध्यानपूर्वक सुनो—(नराशंसः) नरों के सम्बन्ध में कथन (स्तविष्यते) प्रारम्भ किया जाता है। (कौरमे) पृथिवी में सदा प्रसन्नचित्त रहनेवालों में, तथा (रुशमेषु) जिनके हिंसा आदि व्यवहार प्रशान्त हो गये हैं ऐसे योगियों में वर्तमान, (षष्टिं सहस्रा) हजारों (नवतिम्) स्तुत्य और प्रशंसनीय सद्गुणों का (आ दद्महे) हम आदान करते है, ग्रहण करते हैं।
टिप्पणी -
[षष्टिं सहस्रा—सम्भवतः द्युलोक के प्रत्यक्ष दृष्ट सितारे संख्या में लगभग ६० हजार हों। इस महासंख्या के द्वारा महात्माओं के महासद्गुणों का कथन अभिप्रेत हो। अथवा “षष्टिं” और “सहस्रा” शब्दों को यौगिकार्थ मान लिया जाए। षष्टिम्=सांसारिक भोगों की दृष्टि से मानो सोए हुए रहना; और “सहस्रा” अर्थात् योगाभ्यास में बलोपार्जन करते हुए साहसपूर्वक आगे-आगे बढ़ते जाना। ये सद्गुण महात्माओं के हैं। षष्टिम्=षस् स्वप्ने। सहस्रा=सहस् बलम् (निघं০ २.९), तथा साहस। कौरमे=कौ पृथिव्यां रमते; अलुक् समास। रुशमेषु=रु (रुङ् रेषणे)+शम (प्रशान्त)। नवतिम्=नु स्तुतौ। नु+अतिः, बाहुलकात् ‘अतिः’ प्रत्ययः (उणादि कोष ४.६०)।]