अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 127/ मन्त्र 4
सूक्त -
देवता - प्रजापतिरिन्द्रो वा
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - कुन्ताप सूक्त
वच्य॑स्व॒ रेभ॑ वच्यस्व वृ॒क्षे न॑ प॒क्वे श॒कुनः॑। नष्टे॑ जि॒ह्वा च॑र्चरीति क्षु॒रो न भु॒रिजो॑रिव ॥
स्वर सहित पद पाठवच्य॑स्व॒ । रेभ॑ । वच्य॑स्व॒ । वृ॒क्षे । न । प॒क्वे । श॒कुन॑: ॥ नष्टे॑ । जि॒ह्वा । च॑र्चरीति । क्षु॒र: । न । भु॒रिजो॑: । इव ॥१२७.४॥
स्वर रहित मन्त्र
वच्यस्व रेभ वच्यस्व वृक्षे न पक्वे शकुनः। नष्टे जिह्वा चर्चरीति क्षुरो न भुरिजोरिव ॥
स्वर रहित पद पाठवच्यस्व । रेभ । वच्यस्व । वृक्षे । न । पक्वे । शकुन: ॥ नष्टे । जिह्वा । चर्चरीति । क्षुर: । न । भुरिजो: । इव ॥१२७.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 127; मन्त्र » 4
भाषार्थ -
(रेभ) हे स्तुति करनेवाले! (वच्यस्व) तू परमेश्वर के स्तुतिगान गा, (वच्यस्व) बार-बार गा; (न) जैसे कि (शकुनः) पक्षी (पक्वे वृक्षे) पके-फलोंवाले वृक्ष पर बैठकर, फलों को खाता हुआ अपनी अव्यक्त चहचहाती बोली द्वारा मानो परमेश्वर के गीत गाता है। (नष्टे) विनाशकाल के उपस्थित हो जाने पर तो (जिह्वा) जबान (चर्चरीति) लड़खड़ा जाती है, (न) जैसे कि (भुरिजोः) भूरिवेगवाले अश्व के (क्षुरः) पैर (इव) मानो लड़खड़ा जाते हैं।
टिप्पणी -
[अभिप्राय यह है कि जब तक मृत्युकाल उपस्थित नहीं होता, तब तक जिह्वा से तू परमेश्वर के स्तुतिगान गा ले, विनाश-काल के उपस्थित हो जाने पर चाहते हुए भी जिह्वा स्तुतिगान में असमर्थ होती है। भुरिजोः=भुरि+जु गतौ, षष्ठ्येकवचन। क्षुरः=खुर, अश्व के पैर। रेभ=स्तोता (निघं০ ३.१६)।]