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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 127

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 127/ मन्त्र 10
    सूक्त - देवता - प्रजापतिरिन्द्रो वा छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - कुन्ताप सूक्त

    अ॒भीवस्वः॒ प्र जि॑हीते॒ यवः॑ प॒क्वः प॒थो बिल॑म्। जनः॒ स भ॒द्रमेध॑ति रा॒ष्ट्रे राज्ञः॑ परि॒क्षितः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒भीवस्व॒: । प्र । जि॑हीते॒ । यव: । प॒क्व: । प॒थ॑: । बिल॑म् ॥ जन॒: । स: । भ॒द्रम् । एध॑ति॒ । रा॒ष्ट्रे । राज्ञ॑: । परि॒क्षित॑: ॥१२७.१०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अभीवस्वः प्र जिहीते यवः पक्वः पथो बिलम्। जनः स भद्रमेधति राष्ट्रे राज्ञः परिक्षितः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अभीवस्व: । प्र । जिहीते । यव: । पक्व: । पथ: । बिलम् ॥ जन: । स: । भद्रम् । एधति । राष्ट्रे । राज्ञ: । परिक्षित: ॥१२७.१०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 127; मन्त्र » 10

    भाषार्थ -
    पत्नी पति को कहती है कि हे पति! (वस्वः) घर की सब निवास-सामग्री (अभि) आपके प्रति (प्र जिहीते) समर्पित है, तथा (पक्वः) पके (यवः) जौ, और (पथः) पथ्य अर्थात् स्वास्थ्यकारी (बिलम्) बिल्व फल आदि आपके प्रति समर्पित हैं। (परिक्षितः) सर्वत्र गत, तथा सर्वत्र निवासी (राज्ञः) जगत् के महाराजा परमेश्वर के (राष्ट्रे) राष्ट्र में, (सः जनः) वे समग्र प्रजाजन (भद्रम्) सुखपूर्व तथा कल्याणपूर्वक (एधति) बढ़ते हैं।

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