अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 127/ मन्त्र 9
सूक्त -
देवता - प्रजापतिरिन्द्रो वा
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - कुन्ताप सूक्त
क॑त॒रत्त॒ आ ह॑राणि॒ दधि॒ मन्थां॒ परि॒ श्रुत॑म्। जा॒याः पतिं॒ वि पृ॑च्छति रा॒ष्ट्रे राज्ञः॑ परि॒क्षितः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठक॒त॒रत् । ते॒ । आ । ह॑राणि॒ । दधि॒ । मन्था॑म् । परि॒ । श्रु॒त॑म् ॥ जा॒या: । पति॒म् । वि । पृ॑च्छति । रा॒ष्ट्रे । राज्ञ॑: । परि॒क्षित॑: ॥१२७.९॥
स्वर रहित मन्त्र
कतरत्त आ हराणि दधि मन्थां परि श्रुतम्। जायाः पतिं वि पृच्छति राष्ट्रे राज्ञः परिक्षितः ॥
स्वर रहित पद पाठकतरत् । ते । आ । हराणि । दधि । मन्थाम् । परि । श्रुतम् ॥ जाया: । पतिम् । वि । पृच्छति । राष्ट्रे । राज्ञ: । परिक्षित: ॥१२७.९॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 127; मन्त्र » 9
भाषार्थ -
(परिक्षितः) सर्वत्रवासी सर्वगत, (राज्ञः) जगत् के महाराजा परमेश्वर के (राष्ट्रे) ऐसे उत्तम राज्य में, (जायाः) पत्नियाँ (पतिम्) अपने-अपने पति से (वि पृच्छति) विशेषतया पूछती हैं कि हे पति! (कतरत्) कौनसी वस्तु मैं सेवार्थ (ते) आपके लिए (आ हराणि) लाऊँ, (परिश्रुतम्) प्रसिद्ध (दधि मन्थाम्) दधि या मठ?
टिप्पणी -
[जिस राष्ट्र में महात्माओं के सदुपदेश होते रहते हैं, वह राष्ट्र, मानुष शासित राष्ट्र न होता हुआ परमेश्वर द्वारा शासित राष्ट्र बन जाता है, जिसमें कि पति-पत्नी का पारस्परिक व्यवहार प्रेममय रहता है। परमेश्वर के नियमों द्वारा शासित राष्ट्र की एक झांकी महाभारत में इस प्रकार मिलती है। यथा— न राज्यं न च राजासीत्, न दण्डो न च दाण्डिकः। धर्मेणैव प्रजाः सर्वाः, वर्तन्ते स्म परस्परम्॥ अर्थात् सत्ययुग में न कोई राज्य था, और न कोई राजा। न दण्डव्यवस्था थी, और न कोई दण्ड देनेवाला न्यायाधीश। उस समय प्रजाजन धर्मपूर्वक ही परस्पर वर्ताव करते थे। ऐसा राष्ट्र मानो परमेश्वरशासित राष्ट्र है। पृच्छति=पृच्छन्ति। या जाया पृच्छति।]