अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 127/ मन्त्र 2
सूक्त -
देवता - प्रजापतिरिन्द्रो वा
छन्दः - पथ्या बृहती
सूक्तम् - कुन्ताप सूक्त
उष्ट्रा॒ यस्य॑ प्रवा॒हणो॑ व॒धूम॑न्तो द्वि॒र्दश॑। व॒र्ष्मा रथ॑स्य॒ नि जि॑हीडते दि॒व ई॒षमा॑णा उप॒स्पृशः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठउष्ट्रा॒: । यस्य॑ । प्रवा॒हण॑: । व॒धूम॑न्त: । द्वि॒र्दश॑ ॥ व॒र्ष्मा । रथ॑स्य॒ । नि । जि॑हीडते । दि॒व: । ई॒षमा॑णा: । उप॒स्पृश॑: ॥१२७.२॥
स्वर रहित मन्त्र
उष्ट्रा यस्य प्रवाहणो वधूमन्तो द्विर्दश। वर्ष्मा रथस्य नि जिहीडते दिव ईषमाणा उपस्पृशः ॥
स्वर रहित पद पाठउष्ट्रा: । यस्य । प्रवाहण: । वधूमन्त: । द्विर्दश ॥ वर्ष्मा । रथस्य । नि । जिहीडते । दिव: । ईषमाणा: । उपस्पृश: ॥१२७.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 127; मन्त्र » 2
भाषार्थ -
(उष्ट्राः) सांसारिक दाह-सन्ताप से रक्षा करनेवाले, (वधूमन्तः) सुखों की प्राप्ति करानेवाले, (द्विर्दश) दोगुना-दस, (यस्य) जिस महात्मा के (रथस्य) शरीर-रथ के (वर्ष्मा) ढांचे का (प्रवाहणः) उत्कृष्टरूप में वहन करते, और उसे (नि जिहीडते) नितरां सक्रिय रखते हैं, जैसे कि (उपस्पृशः) सूर्यस्पर्शी (दिवः) द्योतमान किरणें (ईषमाणाः) गति करती हुई, सूर्यरूपी (रथस्य वर्ष्म) रथ के ढांचे को, (निजिहीडते) नितरां सक्रिय रखती हैं—(अगले मन्त्र से सम्बन्ध)।