अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 129/ मन्त्र 1
सूक्त -
देवता - प्रजापतिः
छन्दः - प्राजापत्या गायत्री
सूक्तम् - कुन्ताप सूक्त
ए॒ता अश्वा॒ आ प्ल॑वन्ते ॥
स्वर सहित पद पाठए॒ता: । अश्वा॒: । प्ल॑वन्ते ॥१२९.१॥
स्वर रहित मन्त्र
एता अश्वा आ प्लवन्ते ॥
स्वर रहित पद पाठएता: । अश्वा: । प्लवन्ते ॥१२९.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 129; मन्त्र » 1
भाषार्थ -
(एताः) ये (अश्वाः) मनोवृत्तियाँ या चित्तवृत्तियाँ (आप्लवन्ते) प्लुतियाँ लगाती हैं, उछल-कूद करती हैं, अर्थात् चञ्चल और अस्थिर हैं।
टिप्पणी -
[अश्वाः=वैदिक साहित्य में मन या चित्त को ही इन्द्रिय माना है, और इन्द्रियों को शरीर-रथ के “हय” अर्थात् अश्व कहा है। इसलिए मन या चित्त भी अश्व है, और मन या चित्त की विविध-वृत्तियाँ “अश्वाः” हैं। ये चित्तवृत्तियाँ शरीर-रथों का वहन करती हैं। मनुस्मृति में कहा है कि “एकादशं मनो ज्ञेयमिन्द्रिमयमुभयात्मकम्” (२.९२) अर्थात् मन ११वीं इन्द्रिय है, जो कि दोनों रूपोंवाली है, ज्ञानेन्द्रिय भी और कर्मेन्द्रिरूप भी। क्योंकि मन द्वारा ही ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों में प्रेरणाएँ होती हैं, और ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों के केन्द्र मन या चित्त में निहित हैं। इसलिए “अश्वाः” पद द्वारा मनोवृत्तियों या चित्तवृत्तियों का ग्रहण किया है।