अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 35/ मन्त्र 1
अ॒स्मा इदु॒ प्र त॒वसे॑ तु॒राय॒ प्रयो॒ न ह॑र्मि॒ स्तोमं॒ माहि॑नाय। ऋची॑षमा॒याध्रि॑गव॒ ओह॒मिन्द्रा॑य॒ ब्रह्मा॑णि रा॒तत॑मा ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒स्मै । इत् । ऊं॒ इति॑ । प्र । त॒वसे॑ । तु॒राय॑ । प्रय॑: । न । ह॒र्मि॒ । स्तोम॑म् । माहि॑नाय ॥ ऋची॑षमाय । अध्रि॑ऽगवे । ओह॑म् । इन्द्रा॑य । ब्रह्मा॑णि । रा॒तऽत॑मा ॥३५.१॥
स्वर रहित मन्त्र
अस्मा इदु प्र तवसे तुराय प्रयो न हर्मि स्तोमं माहिनाय। ऋचीषमायाध्रिगव ओहमिन्द्राय ब्रह्माणि राततमा ॥
स्वर रहित पद पाठअस्मै । इत् । ऊं इति । प्र । तवसे । तुराय । प्रय: । न । हर्मि । स्तोमम् । माहिनाय ॥ ऋचीषमाय । अध्रिऽगवे । ओहम् । इन्द्राय । ब्रह्माणि । रातऽतमा ॥३५.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 35; मन्त्र » 1
भाषार्थ -
(तवसे) वृद्धिकारक, (तुराय) शीघ्र फलदायक, (माहिनाय) महामहिम (अस्मै) इस परमेश्वर के लिए (इत्) ही, (उ) अवश्य, मैं (स्तोमम्) सामगान (प्र हर्मि) भेंट करता हूँ। (न) जैसे कि अग्निहोत्र में, मैं इसी परमेश्वर के लिए (प्रयः) सामग्री आदि अन्न भेंट करता हूँ। (ऋचीषमाय) ऋचाओं में समाये हुये, (अध्रिगवे) अधृत अर्थात् अबाधित गतिवाले (इन्द्राय) परमेश्वर के लिए, (राततमा) यथार्थज्ञान-प्रदायक (ब्रह्माणि) ब्रह्म-प्रतिपादक वैदिक स्तुतियों का (ओहम्) उपहार मैं लाया हूँ। [हर्मि=हृञ् हरणे। ओहम्=आ+वह् (प्रापणे)। राततमा=रा (दाने)+क्त+तमप्।]